आर. गोपालाकृष्णन
पिछले वर्षों में स्वच्छता के विचार ने अनेक चुनौतियां पेश की हैं। प्रबंधन प्रायः आविष्कार को रचनात्मकता के संकीर्ण नजर, उत्पाद्-विकास और तकनीक से देखते रहे हैं। सफल अविष्कार कहीं अधिक सर्वांगीण हैं और इसके प्रयोग, बिजनेस मॉडल समाजशास्त्र और अमल में लाने के अतिरिक्त आयाम हैं।
बोकार्डों डॉट कॉम के अनुसार, स्टीव जॉब्स ने यह विचार व्यक्त किया, ‘यह सोचना एक बीमारी है कि वास्तव में एक महान् विचार कार्य करने का 90 प्रतिशत है।’ जॉब्स ने तर्क दिया कि एक विचार तब-तक मूल्यहीन है, जब-तक कि वह कारीगरी के जरिए उत्पाद-प्रदर्शन नहीं करता। यही वह चीज है, जो महान् विचार और योग्य उत्पादन के बीच स्थित है। जब एक विचार को उत्पाद का आकार दिया जाता है तो उसके स्वरूप में रूपांतरण एवं परिवर्तन होता है, आविष्कार की इस प्रक्रिया में, नवीनता और ग्राहक की खुशी जुड़ जाती है। अंतिम उत्पाद मूल विचार से थोड़ा-बहुत मिलता-जुलता हो सकता है।
स्वच्छता के अकथ्य विषय के संदर्भ में नवीनीकरण पर विचार करें। स्वच्छता के विचार ने हर नए उत्पाद के साथ अधिक-से-अधिक चुनौतियां प्रस्तुत की हैं।
सिंधु-घाटी में जल-प्रवाही शौचालय
सिंधु-घाटी सभ्यता ईसा से 30 शताब्दी पहले अस्तित्व में थी और वह जल-संबंधी प्रबंधन में प्रमुख थी। निजी घरों में जल-प्रवाही शौचालय को, जो पहले से जानी जाती थी, एक समान सीवरेज विधि से जोड़ा गया था। सीवर डेढ़ मीटर गहरे और एक मीटर चैड़े होते थे। उन्हें ईंटों से बनाया जाता था और उनमें छिद्र नहीं होती थीं। यह आश्चर्य है कि हमारा समाज, जो स्वच्छता-संबंधी धरोहर था, आज दुनिया में सबसे अधिक खुले में शौच करने की जगह बन गया है।
रोमन सभ्यता में दुर्ग शौचालय
हड्रियल वाल का हाउस स्टीड दुर्ग शौचालय का सत्यापन करता है, जिसे रोमन सम्यता में स्वच्छता का सर्वाधिक सुरक्षित स्थल माना जाता था।
सोलहवीं शताब्दी के इर्द-गिर्द वाटर-क्लोजेट के प्रारंभिक स्वरूप दिखाई देना शुरू हो गए थे। जॉन हैरिंग्टन नामक एक अंगरेज कुलीन व्यक्ति ने एक शौचालय बनवाया, जिसका नाम उसने महारानी एलिजाबेथ के लिए ‘संपूर्णता का शौचालय’ दिया। यह सन् 1596 में हुआ। इस तरकीब ने कचरे को बहा दिया। लेकिन बदबू को खत्म करने का साधन उसके पास नहीं था।
यह कचरा-प्रबंधन को आधुनिक स्वरूप प्रदान करने के लिए जाना जाता था। शौचालयों से निकलता हुआ जल-मल एक नाली के जरिए मुख्य सीवेज लाइन में मिलता था और फिर मानव-मल के साथ नदी में चला जाता था।
सोलहवीं शताब्दी के इर्द-गिर्द वाटर-क्लोजेट के प्रारंभिक स्वरूप दिखाई देना शुरू हो गए थे। जॉन हैरिंग्टन नामक एक अंगरेज कुलीन व्यक्ति ने एक शौचालय बनवाया, जिसका नाम उसने महारानी एलिजाबेथ के लिए ‘संपूर्णता का शौचालय’ दिया। यह सन् 1596 में हुआ। इस तरकीब ने कचरे को बहा दिया। लेकिन बदबू को खत्म करने का साधन उसके पास नहीं था।
सन् 1920 के आसपास महात्मा गांधी ने कहा था, ‘स्वच्छता, स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है।’
सन् 1999 में ‘ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के विशेषज्ञों से पूछा गया कि सन् 1940 के बाद के युग में चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे बड़ी तरक्की क्या थी। बहुमत का विचार था कि जन स्वच्छता-ऐंटिबायटिक्स और एनिसथिसिया से अधिक महत्त्वपूर्ण। अनेक शताब्दियों के बाद स्वच्छता का विचार जीवित और अग्रगामी है। वह दुनिया के सर्वाधिक अकलमंद लोगों का ध्यान खींच रहा है, मनुष्य की सुविधा के लिए एक ऐसा विचार तैयार करने में, जो अधिक कल्पनाशील उत्पादों का प्रदर्शन कर सके।
सदियों के कार्यकलापों के बावजूद आविष्कार की चुनौती ने गहनता को बढ़ा दिया है। आमतौर पर तीन प्रकार की स्वच्छता-सुविधाएं हैं। बाजार के अंतिम हिस्से से जो लोग जुड़े हैं, उन्हें जल-प्रवाही शौचालय उपलब्ध है। गड्ढे वाले शौचालय से मध्यम वर्गीय लोगों की सेवा होती है। सर्वाधिक निर्धन वर्ग खुले में शौच करते हैं। इस ग्रह के 7 अरब लोगों में से एक अरब लोग खुले में शौच करते हैं। दूसरे डेढ़ अरब लोगों को जल-प्रवाही शौचालय-सुविधा उपलब्ध नहीं है। उसका मतलब है कि खराब स्वच्छता-व्यवस्था के दुष्प्रभावों की गिरफ्त में ढाई अरब लोग हैं।
वैज्ञानिकों से शौचालयों के आविष्कार का आह्वान बिल ऐंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने वैज्ञानिकों से शौचालयों के पुनः आविष्कार का आह्वान किया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत भारतीय कंपनी ‘एराम’ ने एक ऐसे ई. टॉयलेट की डिजाइन तैयार की है, जो अपने-आप में अपनी जरूरतों के लिए सक्षम है। वह अपने लिए कचरे से ऊर्जा और जल पैदा कर सकती है। इसके अलावा ई. टॉयलेट को इलेक्ट्रॉनिक नेटवर्क के जरिए आपस में जोड़ भी सकते हैं।
वाशिगंटन-स्थित एक कंपनी ने एक ऐसा पावर-प्लांट तैयार किया है, जो एक छोटे शहर के कचरे से चलेगा। वेस्ट इंग्लैड विश्वविद्यालय ने मूत्र से ऊर्जा-निर्मित ईंधन-सेल प्रस्तुत किया है, जो रातभर में सारे सेलफोन चार्ज कर सकता है। कोलोराडो विश्वविद्यालय की एक अन्य टीम ने एक ऐसी विधि का आविष्कार किया है, जो सूर्य की ऊर्जा को एकत्र करके इतनी बिजली पैदा कर सकती है, जो कचरे के अंदर के रोगजनकों को मार सकता है। उससे ‘बायोचर’ पैदा कर सकता है, जो खाना बनाने और उर्वरक तैयार करने में सक्षम है, अब लगता है कि ऐसे समाधान, जो आविष्कारी और पुरस्कार प्राप्त करने में सक्षम हैं, उन अरबों लोगों के लिए निरर्थक हो जाएंगे, जो स्वच्छता की समस्या से जूझ रहे हैं।
डॉ. बिन्देश्वर पाठक सन् 1970 में सुलभ की स्थापना के लिए प्रसिद्ध हैं। दो गड्ढों वाले एक ऐसा पोर फ्लश टॉयलेट (‘भुगतान और उपयोग’ के आधार पर), जो साफ-सुथरा है और मौके पर ही मल की सफाई करता है, इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं। यूएन सेंटर फॉर ह्यूमन सेटलमेंट ने इस महान् आविष्कार की प्रशंसा की है, यद्यपि यह तकनीक बड़े पैमाने पर सफल है, लेकिन उसने देश में खुले में शौच की प्रथा को खत्म कर पाने में नाटकीय ढंग की सफलता प्राप्त नहीं की है।
खुले में शौच मानसिकता का परिणाम भी है
यह सिर्फ तकनीकी समस्या नहीं है, बल्कि इसमें सामाजिक मानसिकता का भी दोष है। जब खुले में मल-त्याग-जैसी समस्याएं लंबे समय तक डटी रहती हैं तो मनुष्य इसकी अनदेखी करने लगता है। ग्रामीण नेताओं को लोगों को सफाई एवं स्वच्छता-संबंधी आदतों को अमल में लाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। यह सुझाव हमेशा से दिया जाता रहा है कि जो परिवार शौचालय-सुविधाओं का प्रयोग नहीं करेगा, वह सरकारी अनुदान का हकदार नहीं होगा। कई बेहतरीन संस्थाएं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्यपरक बाजारों का आयोजन करती हैं। ये सफलतापूर्वक जागरूकता के प्रसार का कार्य करती हैं। उनमें से कुछ शौचालयों का निर्माण भी करती हैं। इन्हें सहायाता देने की आवश्कयता है।
निगम सामाजिक समस्या के समाधान का प्रयास कर रहे हैं। भारतीय उद्योग-महासंघ के श्री सुशांत सेन ने इसके बारे में एक रिपोर्ट तैयार की है। पिछले वर्ष 2013 में स्वच्छता के क्षेत्र में निगमों का शामिल होना और 60 कंपनियों को प्रथम प्रयास के रूप में इकट्ठा कर लेना, उसमें निगमित सामाजिक दायित्व का अनिवार्य होना, इस अद्भुत पहल से बहुत कुछ उम्मीदें की जा सकती हैं। पड़ोसी देश बंगलादेश ने सन् 2000 के आसपास जन-कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें उसने गैरसरकारी संगठनों, राष्ट्रीय स्वच्छता स्ट्रैटेजी को शामिल किया। परिणाम क्रांतिकारी हो सकते हैं। उसने शौच को लेकर जनता के दृष्टिकोण को बदला है। हाल में किए गए स्थानीय सर्वेक्षण में पाया गया कि सिर्फ 5 प्रतिशत बंगलादेशियों ने खुले में शौच किया, जबकि भारत में वह 57 प्रतिशत है। निश्चय ही भारत इसे बेहतर तरीके से कर सकता है।
साभार : बिजनेस स्टैंडर्ड, (सुलभ इंडिया, अप्रैल 2014)
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