हरिबाबू जिंदल
चौका चूल्हा चौखट, रखते सभी पवित्र,
गलियारे भी साफ हों, नहीं सोचते मित्र।
नहीं सोचते मित्र, जरूरत इसकी कितनी,
उतनी ही व्यंजन परोसने थाली जितनी।
खूब सजे पकवान, मगर थाली हो गंदी,
खुश न हो मेहमान, अक्ल इसमें है मंदी।
अंदर घर सुन्दर सजा, बाहर कूड़ा कींच,
न्हाये धोये पहन ली, ज्यो गंदी ही कमीज।
ज्यो गंदी ही कमीज, सकुच अपने मन आवे,
बाहर कूड़ा देख, विदेशी को ना भाये।
जितना आवश्यक है, घर-आंगन हो स्वच्छ,
उतना ही आवश्यक, बाहर भी हो स्वच्छ।
जो फैलाये गंदगी, जुर्म करें वे जान,
नियम और कानून का, करते वे अपमान।
करते वे अपमान, समाज में दागी हैं वे,
चोरी जैसे करें, दंड के भागी हैं वे,
गंद अशोभनीय और फैलाय बीमारी,
< स्वच्छ होय भारत, प्रतिज्ञा होय हमारी।
साभार : गर्भनाल
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