टीना शर्मा
जब भी सड़क पर ध्यान जाता है, कोशिश करती हूं कि स्वच्छ भारत के नफे-नुकसान का उतना तो हिसाब किताब लगा लूं, जितना मेरी जेब से गया है। पर क्या वाकई सड़कें साफ हुईं, भारत स्वच्छ हुआ। बड़े-बड़े पोस्टर, बैनर मुख्य स्थलों पर लगे- किराया अंदाजन पचास हजार से पांच लाख। सब नेता लाली टपकाते होर्डिंग पर लटके हुए हैं, और गांधीजी के स्वच्छ भारत के सपने को चकनाचूर करने के बावजूद अपनी चमचागिरी चमका रहे हैं। इन पोस्टरों के बिल्कुल नीचे गंदगी के बड़े ढेर पड़े हुए हैं। जानवर कूड़ा खाकर सड़कें साफ करने की भरसक कोशिश जरूर कर रहे हैं। जिस जगह दिन भर नगर निगम के दो कर्मचारियों से काम चल जाता, वहां बीस गुना प्रतिमाह के पोस्टर बेदर्दी से चस्पा हैं! स्वच्छ भारत के नफे-नुकसान को भी राजनीतिक लोग भुनाने से बाज नहीं आए।
जब से हमारे प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत का डंडा थमाया है, सोशल मीडिया पर हर रोज हर गली-मोहल्ले के छुटभैया नेता अपने दो-चार चेलों के साथ साफ सड़कों को बेवजह दोबारा साफ करके फोटो चस्पा कर रहे हैं। कह सकते हैं कि असल में सोशल मीडिया पर भारत सबसे ज्यादा स्वच्छ हो रहा है!
सड़कों की सफाई के आवाह्न के पीछे कहीं राजनीतिक गंदगी पर परदा तो नहीं! जिस राजनीतिक जमात को राजनीतिक स्वच्छता की बात करनी चाहिए, वह वोट बैंक की राजनीति के लिए नामी अपराधियों के साथ मंच साझा करने से भी नहीं हिचकाती। गांधीजी के अतुलनीय त्याग भरे जीवन से एक छोटा-सा शब्द ‘स्वच्छ भारत’ अपहरित कर लेना हर गांधी-प्रेमी के मन को पीड़ित कर रहा है। नेता जी, आपसे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो गांधीजी के कहे शब्दों को बिना अर्थ के प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि अर्थ से अनर्थ हो जाएगा और अधूरे और टालमटोल अर्थ से राजनीतिक रोटियां ज्यादा करारी सिंकेंगी।
सैद्धांतिक मूल्यों का ह्रास स्वच्छ भारत के नारे में दिख रहा है। सारा दिन रेडियो और टेलीविजन पर स्वच्छ भारत के विज्ञापन अब तो जी जलाने लगे हैं। हर 2 मिनट बाद जब स्वच्छ भारत के जिंगल कानों में गर्म तेल की तरह पड़ते हैं, तो मन बरबस उन करोड़ों रूपयों की बर्बादी के बारे में सोचने लगता है, जो इन विज्ञापनों पर पानी की तरह बहाए गए होंगे। थोड़ी चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि सड़क की सफाई और इन विज्ञापनों के बीच की खाई कितनी गहरी है और इसमें मलाई कितनी गाढ़ी है।
इस तरह खुद झाड़ू उठाकर सफाई करनी चाहिए या नगर निगम की जिम्मेदारी दुरुस्त करनी चाहिए? लेकिन मजेदार बात है कि सोशल मीडिया के जमाने में हर गली मोहल्ले के नेताओं ने कड़क इस्त्री किए हुए कुर्ते-पैजामे में झाड़ू हाथ में लेकर, बिना एक इंच झाड़ू हिलाए एक अच्छा-सा ‘पिक्चर परफेक्ट पोज’ बनाया और तुरंत एक क्लिक पर फोटो खींचकर फेसबुक पर दे मारा। साफ दिखता है कि नेता जी ने फोटो खिंचवाने के लिए झाड़ू उठाने की जहमत उठाई है, वरना कड़क इस्त्री किए कपड़ों में भला कोई सफाई करता है!
जब से हमारे प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत का डंडा थमाया है, सोशल मीडिया पर हर रोज हर गली-मोहल्ले के छुटभैया नेता अपने दो-चार चेलों के साथ साफ सड़कों को बेवजह दोबारा साफ करके फोटो चस्पा कर रहे हैं। कह सकते हैं कि असल में सोशल मीडिया पर भारत सबसे ज्यादा स्वच्छ हो रहा है!
सिर्फ यहीं तक स्वच्छ अभियान की धज्जियां नहीं उड़ रहीं, सोशल मीडिया पर जिस सड़क की झाड़ू से सफाई हो रही है, वहीं साथ लगी दीवारों पर सफाई करने वाले लघुशंका निवृत्ति का आन्नद भी ले रहे हैं। सफाई करने का आदेश मिला है, पर यह तो किसी ने नहीं बताया की लघुशंका करके दीवारें गंदी नहीं करनी। सफाई अभियान का दम भरनेवाले अनजाने में ही सही, अपनी आदतों का परिचय खुलकर दे रहे हैं!
सड़क पर चलते-चलते मन में उठे सवाल जितनी साफगोई से अपने अंदर छिपे दर्द को व्यक्त कर पा रहे हैं, वह यकीनन इस स्वच्छ भारत अभियान का आज तक का सबसे दिलचस्प और वाजिब पहलू है-और इतना तो जरूर साफ करता है कि गांधी जी के सत्य के प्रयोग से केवल हमने एक शब्द उठाकर असत्य की भारी भरकम प्रयोगशाला खड़ी कर दी है। इस प्रयोगशाला से कब और कैसे विस्फोट होंगे, यह ख्याल ही रूह को कपां देता है। हम इतने नकली हो गए हैं कि खुद अपने मन की सफाई नहीं कर सकते। दिखावे का प्रयोग भी ऐसे हो रहा है कि मानो दिखावा फूट फूट कर कह रहा हो कि केवल देखें, अपनाए नहीं ऐसे हालात में हमें यह भी समझने की जरूरत है कि नेताओं के ‘स्वच्छ’ शब्द और महात्मा गांधी के ‘स्वच्छता’ शब्द के मायने एक नदी के दो किनारे हैं, जो आपस में कभी मेल नहीं खा सकते।
तो कुल यह कि खाया-पिया कुछ नहीं और गटक गए बेहिसाब। ‘स्वच्छ’ भारत का हिसाब-किताब जानने के अधिकार का इस्तेमाल करने वालों का इंतजार कर रहे हैं कि कोई तो अपनी कलम की ताकत से स्वच्छ भारत की बीमारी पर आए मेडिकल खर्च को भी जनता के सामने लाए।
साभार : जनसत्ता, 7 दिसम्बर 2014
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