शौच के लिए जाना है दूरः महिलाओं का संघर्ष और हिंसा मुक्त शौचालय

दुनिया के नेता के तौर पर भारत की स्वच्छता स्थिति बेहद शोचनीय है। रवांडा और मलावी जैसे अफ्रीकी देश भारत की तुलना में खुले में शौच के मुद्दे से बेहतर ढंग से निपट रहे हैं। भारत के 70 प्रतिशत ग्रामीण, लगभग 55 करोड़ लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। शहरी भारत में जीवन इतना कठिन नहीं है जितना कि गाँवों में है। लेकिन फिर भी शहरों और कस्बों की 13 प्रतिशत जनसंख्या खुले में शौच जाती है।

 

शहरी स्वच्छता संकट को सम्भालना काफी कठिन होता जा रहा है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या और आजीविका की खोज में ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन करने से स्थिति तनावपूर्ण बन गई है।

 

खुले में शौच जाने वाली महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बड़ी ही चिन्ता का विषय है। 'स्वच्छता जोखिम: महिलाओं का तनाव और हिंसा से मुक्त स्वच्छता के लिए संघर्ष' शीर्षक से किया गया अध्ययन गरीब शहरी महिलाओं के उत्पीड़न और हमले की धमकियों के बीच शौच करने के अनुभवों को प्रस्तुत करता है।

 

महिलाओं का मनोवैज्ञानिक-सामाजिक तनाव

 

इस अध्ययन में पुणे और जयपुर की 112 महिलाओं से बातचीत के द्वारा उनके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तनाव को स्वच्छता के अभाव में समझने की कोशिश की गई। व्यक्तिगत साक्षात्कार, केन्द्रित समूह के साथ ही जीआईएस मैपिंग के द्वारा खुले में शौचस्थलों और सार्वजनिक सुविधाओं का भी अध्ययन किया गया।

 

अध्ययन में पाया गया कि अपर्याप्त स्वच्छता 'असमान लिंग सम्बन्धों की यथास्थिति बनाए रखता है'। जबकि मनोवैज्ञानिक सामाजिक तनाव उम्र, जाति और रहने के स्थान में भिन्नता पाई गई जिससे कई आम और स्थायी खतरे बने रहते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में 'उत्पीड़न से निजात पाने के लिए सुरक्षा उपाय' को समझा गया।

 

उत्पीड़न के कई रूप

 

उत्पीड़न सिर्फ युवा लड़कियों या विधवाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि विवाहित महिलाओं को भी इसका सामना करना पड़ता है। इसलिए वे घर की लड़ाई से बचने के लिए अपने विषय में सारी जानकारी बता कर आती हैं।

 

हालाँकि, महिलाओं को यहाँ पर एक अकेले अस्तित्व के रूप में नहीं देखा जा सकता। प्रमुख समुदाय से सम्बन्ध रखने के अपने फायदे होते हैं। जयपुर की मलिन बस्तियों में रहने वाली बहुसंख्यक समुदाय की महिलाओं ने बताया कि उन्हें खुले में शौच जाने से किसी डर या उत्पीड़न का खतरा नहीं है। हालाँकि यही बात निचली जाति या अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं पर लागू नहीं होती।

 

महिलाओं ने अपने शोषण के लिए जिम्मेदार अन्य समुदायों के शरारती तत्वों की ओर उंगली उठाते वक्त किसी प्रकार का डर महसूस नहीं किया। उन्होंने बाहरी लोगों को भी दोषी ठहराया। अवसरवादी पुरुष, उनका शौच स्थलों पर अक्सर इंतजार करते हैं और जब उन्हें कम उम्मीद होती है तभी हमला करते हैं।

 

डर से सामना

 

बारम्बार उत्पीड़न और सदैव उत्पन्न रहने वाले खतरे के कारण महिलाओं के दिलों-दिमाग और शरीर पर एक दबाव बना रहता है। इन खतरों से पार पाने के लिए कुछ महिलाओं ने घरेलू नुकसान को अपनाना शुरू किया है। समूह में शौच जाने से हमला होने के खतरे कम हो जाते हैं इसलिए इसे पसन्द भी किया जाता है। इसके अलावा, सम्भावित खतरों से बचने के लिए महिलाएँ पत्थर और मसाले साथ लेकर जाती हैं।

 

महिलाओं के लिए वह स्थिति बेहद खतरनाक होती है जब शौच करते वक्त कोई उनके करीब आ बैठता है। अपनी पहचान छुपाने के लिए वे अपने सिर को पल्लू से ढककर निवृत्त होती हैं। जवान बेटियों को घर से बाहर शौच करने जाने से कई लोगों ने घर में या घर के पास शौचालय निर्माण के बारे में सोचना शुरू कर दिया है।

 

शौच जाने से खुद को रोकने के लिए कई दफा महिलाएँ बहुत कम खाना खाती हैं। महिलाएँ रात में कम पानी और खाना खाती हैं ताकि शौच जाने की जरूरत न पड़े। मुसीबत से खुद को बचाने के लिए महिलाएँ कभी-कभी अपने पति और बेटों को रात में शौच के लिए अपने साथ लेकर जाती हैं।

 

खुले में शौच या गन्दे सार्वजनिक शौचालय में से एक को चुनें

 

अध्ययन में पाया गया कि जयपुर की महिलाएँ पुणे की महिलाओं की तुलना में अधिक शौच के लिए बाहर जाती हैं, इनमें से ज्यादातर सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। बहुत से सार्वजनिक शौचालय खराब रोशनी, गीले फर्श की वजह से गर्भवती महिलाओं और बड़ी उम्र की महिलाओं के लिए असुरक्षित होते हैं।

 

कुछ स्थानों पर, महिलाओं को शौचालयों तक पहुँचने के लिए पुरुषों के शौचालय या पानी पीने के स्थान से होकर गुजरना पड़ता है। शौचालय परिसर के करीब बनी शराब की दुकानें केवल स्थिति को बदतर बनाती हैं जिससे महिलाओं के लिए जोखिम बढ़ता है।

 

एक बार यदि कोई महिला इन बाधाओं को पार करके सफलतापूर्वक शौचालय तक पहुँच भी जाती हैं तो फर्श पर पड़े मल या उकड़ू मुद्रा उनका स्वागत करती है। अधिकांश को पानी की कमी के कारण घर से एक डिब्बे में पानी लाना पड़ता है या पास के टैंक से डिब्बा भरना पड़ता है। इसके अलावा, आप हमेशा यह अपेक्षा नहीं कर सकती कि दरवाजा अन्दर से बन्द हो ही जाएगा।

 

शौच के लिए लम्बी दूरी तय करना

 

रेलवे लाइनें, नहर का किनारा और झाड़ी-जंगलों में अक्सर महिलाएँ शौच के लिए जाती हैं। यह जानते हुए कि यह रास्ता काफी खतरनाक है। नहर में गिरकर/ फिसलकर अपने पैर टूटने या रेलवे लाइन पर अपनी जान गँवाने से और जंगल/ झाड़ियों में पुरुषों या जानवरों के सम्भावित हमलों के खतरों को जानते हुए भी ये महिलाएँ शौच के लिए इन्हीं जगहों पर जाती हैं।

 

कई स्थानों पर सार्वजनिक शौचालय मुफ्त में उपलब्ध नहीं हैं। उपयोग करने की अधिकतम राशि एक रुपया है और ये पूरे दिन खुले भी नहीं रहते हैं। इन बाधाओं के बावजूद, शहरी मलिन बस्तियों के आसपास खुले में शौच की जगहों की कमी की वजह से महिलाओं को इन्हीं बेकार सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करने पर मजबूर होना पड़ता है।

 

क्या पर्याप्त स्वच्छता से लैंगिक हिंसा में कटौती आ सकती है?

 

अध्ययन दल को लगा कि "लैंगिक सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन की आवश्यकता है।" चूँकि महिलाओं को समुचित स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं, इसीलिए एक ही तरह के प्रावधान वास्तविक लैंगिक सम्बन्धों को दुरुस्त नहीं कर सकते। लिंग केन्द्र के अभाव में स्वच्छता सुविधाएँ महिलाओं की सुरक्षा पर खतरा बन जाएंगी जैसे

 

1. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत को स्वच्छता के मोर्चे पर आगे आने की जरूरत है, महिलाओं के दिन-ब-दिन झेलते तनावों की ओर ध्यान देने की जरूरत है।

 

2. अध्ययन इस बात की पैरवी करता है कि स्वच्छता योजनाएँ समग्र शहरी विकास को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ।

 

3. शहरी गरीबों की अपेक्षाओं जैसे कि खुले स्थान और जीवित रहने की आवश्यकताओं को सम्बोधित करने की जरूरत है। मजबूत बजटीय आवंटन और स्थानीय सरकारों का इस क्षेत्र में अग्रणी होना समय की जरूरत है।

 

4. सिर्फ एक शौचालय का निर्माण पर्याप्त नहीं है। रख-रखाव भी महत्वपूर्ण है। सार्वजनिक शौचालय के रख-रखाव की जिम्मेदारी शहरी स्थानीय निकायों को उम्रदराज, गर्भवती महिलाओं, और विक्लांग महिलाओं को ध्यान में रखकर शौचालयों की देखभाल करनी चाहिए।

 

5. मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और केन्द्रों को चाहिए कि वे सामुदायिक स्तर पर महिलाओं द्वारा झेले जा रहे मनोवैज्ञानिक सामाजिक तनाव को ध्यान में रखे।

 

6. एक समुदाय निरीक्षण प्रणाली स्थापित करनी चाहिए जिससे कि विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन और निगरानी का कार्य सफलतापूर्वक किया जाए।

 

यह एक साल तक (2013-14) चले 'स्वच्छता जोखिम: महिलाओं का तनाव और हिंसा से मुक्त स्वच्छता के लिए संघर्ष' अध्ययन पर आधारित है। इस अध्ययन को संयुक्त रूप से सोपेकॉम और टेक्सास के ए एण्ड एम विश्वविद्यालय ने मिलकर किया है। इसे ब्रिटेन के इंटरनेशनल डेवलपमेंट और डब्ल्यूएसएससीसी की जल आपूर्ति और स्वच्छता परिषद का सहयोग प्राप्त हुआ है।

 

सन्दर्भ:

 

Why India's sanitation crisis needs more than toilets - Accessed on March 3, 2015

Path Alias

/articles/saauca-kae-laie-jaanaa-haai-dauurah-mahailaaon-kaa-sangharasa-aura-hainsaa-maukata

Post By: iwpsuperadmin
×