सामाजिक मानसिकता में बदलाव से ही सम्भव है स्वच्छ भारत

गौरव कुमार


स्वच्छता, विकास और सामाजिक परिवर्तन तीनों का आपस में काफी घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक विकसित समाज की पहचान का संकेतक समाज में स्वास्थ्य और स्वच्छता का स्तर है। किसी भी समाज, जहाँ के लोग गन्दगी में रहते हों और स्वास्थ्य के स्तर पर कमजोर हों उन्हें विकसित या सभ्य नहीं कहा जा सकता। स्वास्थ्य का सम्बन्ध अनिवार्य रूप से स्वच्छता से जुड़ा हुआ है। इसलिए जहाँ स्वच्छता है वहीं स्वास्थ्य है। साथ ही जहाँ स्वास्थ्य है, वहीं विकास और प्रगति भी है। क्योंकि एक स्वस्थ समाज के सदस्य ही एक बेहतर मानव संसाधन हो सकते हैं और राष्ट्र के विकास में सहयोगी भी। साथ ही यदि समाज में स्वास्थ्य का स्तर बेहतर नहीं रहता तो स्वास्थ्य सुविधाओं पर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा व्यय करना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा मानव विकास सूचकांक के निर्धारण में स्वस्थ जीवन को भी एक संकेतक माना गया है। अर्थात् एक मानव के विकास का निर्धारण उसके स्वस्थ जीवन जीने के आधार पर किया जाता है। जीवन में स्वास्थ्य का महत्व सदियों से बताया जाता रहा है और यह एक व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के विकास के लिए अत्यंत महत्व रखता है। वर्तमान में भी स्वच्छता को लेकर एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छिड़ा हुआ है, और यह खुशी की बात है कि इसका आगाज राजनीतिक क्षेत्र से हुआ है। यह सत्य है कि स्वास्थ्य और स्वच्छता राजनीतिक अवधारणा नहीं है, किन्तु इस सन्दर्भ में स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान भी महात्मा गांधी और उनके समर्थक लगातार लोगों को इस दिशा में जागरूक करते रहे। राजनीति शास्त्र की भाषा में इसे ना तो वोटों का आधार माना जाता है और ना ही राजनीतिक वैचारिकी। किन्तु फिर भी यह लोगों के बड़े समूह तक यदि सीधे पहुँच रहा है तो यह बेहतर पहल कही जायेगी।

 

स्वच्छता एक मनोवृत्ति है। स्वच्छता एक आदत है। आदत यूँ ही नहीं बन जाती। क्षणिक व्यवहार के कई कारक इसके पीछे कार्य कर रहे होते हैं। कभी सहज भाव से लगातार पुनरावृत्त होते व्यवहार तो कभी दण्ड विधन के भय से विकसित होते नये व्यवहार। दोनों ही परिस्थिति में यह मानस के तौर पर समाज के मानस पर उकेरा जाता है। तभी कोई व्यवहार आदत का रूप ले पाता है और सर्वस्वीकार्य हो पाता है। यही बात स्वच्छता की आदतों पर भी लागू होती है

 

स्वच्छताः एक सामाजिक मूल्य आज भारत सहित विश्व के कई देश साफ-सफाई के संकट से जूझ रहे हैं। स्वच्छता के अभाव से कई तरह की समस्याएँ और बीमारियाँ भी उत्पन्न हो रही हैं। स्वच्छता के लिए भारत सहित तमाम देशों के द्वारा व्यापक प्रयास किये गए हैं, इसके बावजूद आज भी वैश्विक आबादी में से करीब 40 प्रतिशत लोग साफ-सफाई के संकट से जूझ रहे है (https://www.who.int/)। इस स्थिति में हमारे समाज की बहुत बड़ी भूमिका है और आगे भी हो सकती है क्योंकि सफाई के प्रति समाज में जागरूकता में कमी की ही वह वजह है जिसके कारण विश्व की इतनी अधिक आबादी इस संकट में जी रही है। सफाई एक सीखा हुआ व्यवहार है और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में हमेशा सीखा हुआ व्यवहार ही करता है। समाज में यदि स्वच्छता नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि यह समाज के द्वारा उसके प्रमुख एजेंडे में ही नहीं ही। जिस प्रकार समाज में लोग मिलकर अपने मूल्य और प्रतिमान तय करते हैं उसी प्रकार स्वच्छता और सफाई को भी सामाजिक मूल्य की श्रेणी में लाकर हम स्वच्छ भारत मुहिम को सफल कर सकते हैं। यदि इस तरह समाज के सभी वर्ग मिलकर ऐसा करते हैं तो समाज में यह एक परम्परा और आदत बन जायेगी और जो सामाजिक मूल्य के रूप में लोगों की आदत बन जाती है उससे अलग होना सम्भव नहीं हो पाता। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम ने समाज में सामाजिक तथ्यों का वर्णन करते हुए बताया था कि ऐसी चीजें जो समाज में प्रतिमान और आदर्श के रूप में स्थापित हैं उनकी अवहेलना करना व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं होता यह ऐसी चीज है जो व्यक्ति को दवाब डालती है और वह उस कार्य को करने का आदी बन जाता है। यही स्थिति सफाई को लेकर भी होनी चाहिए ताकि लोगों पर यह नैतिक दवाब बना सके।


Box item: जनता अभी अशिक्षित है और उसे इस विषय में शिक्षित करने के लिए इन तरकीबों का सहारा लेना होगा। किन्तु यहाँ जनता के बीच में वैसे बहुत से लोग भी है जो सीधे लोगों को लगातार प्रेरित कर सकते है। स्वच्छता के निर्धारित लक्ष्य को तभी पाया जा सकता है जब समाज के सभी लोग इस प्रवृति को आत्मसात करें और समाज में इसके प्रति जनचेतना बदले।


इस सन्दर्भ में समाज के द्वारा कई तरह की सकारात्मक पहल की जा सकती है। आज कई समाजों में पंचायतों का बहुत अधिक प्रभाव है यदि ये पंचायतें समाज में सफाई की निगरानी सुनिश्चित कर दें तो कई समस्याएँ वैसे ही सुलझ जायेंगी। हालांकि देश में पंचायती राज संस्था की स्थापना के बाद से ही यह विषय पंचायतों को दिए गए है, किन्तु जो अनौपचारिक पंचायत हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में है उनका प्रभाव जनता पर काफी अधिक है, और दुःख की बात यह है कि इस तरह की गतिविधियों के लिए उन्हें प्रोत्साहित करने की पहल नहीं हो सकी है। आज हमें स्वच्छता के प्रति एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सोचकर आगे बढ़ने की जरूरत है।


यह सिद्ध हो चुका है कि मानव अपने स्वभाव तथा अज्ञानता की वजह से सफाई के प्रति ध्यान नहीं दे पाता। ऐसे में हमें व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझते हुए उसे प्रेरित करने के उपाय अपनाने की जरुरत है। हालांकि यह काम सरकार के स्तर पर शुरू कर दिया गया है। जिस प्रकार प्रधानमन्त्री ने स्वच्छता अभियान के लिए अपने नौ दूत या रत्न बनाए उसका भी प्रभाव मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों पर पड़ रहा है। यहाँ वही मनोविज्ञान काम कर रहा है जहाँ किसी खास व्यक्तित्व, जिसे जनता बहुत चाहती है और उसकी फैन है के नक्शेकदम पर चलना चाहती है। यह एक तरह से समाज के लोगों की इस रुचि को भी दिखाता है कि हम अपनी स्वच्छता के लिए भी विज्ञापन पर निर्भर है। आज जरुरत इस मानसिकता को भी बदलने की है। यह सही है कि जनता अभी अशिक्षित है और उसे इस विषय में शिक्षित करने के लिए इन तरकीबों का सहारा लेना होगा। किन्तु यहाँ जनता के बीच में वैसे बहुत से लोग भी है जो सीधे लोगों को लगातार प्रेरित कर सकते है। स्वच्छता के निर्धारित लक्ष्य को तभी पाया जा सकता है जब समाज के सभी लोग इस प्रवृति को आत्मसात करें और समाज में इसके प्रति जनचेतना बदले।

 

स्वच्छता के लिए प्रयास


जो लोग गन्दगी फैलाते है वे दो तरीके के होते हैं, पहले अशिक्षित और अज्ञानी होते है। दूसरे प्रकार के लोग असामान्य प्रकृति के होते है ऐसे लोग किसी ना किसी तरह की मानसिक विकृति के शिकार होते है। हमें समाज के ऐसे लोगों को भी स्वच्छता के प्रति जागरूक करने का महत्वपूर्ण कार्य करना है।

 

भारत सहित तमाम देशों के द्वारा स्वच्छता के प्रति जागरूकता के लिए लागातार प्रयास करते रहना बेहद जरुरी है। इसी तरह से खुले में शौच की वैश्विक समस्या से निपटने के लिए भी जागरुकता बहुत जरुरी है, और इसी के लिए 19 नवम्बर 2001 को अन्तरराष्ट्रीय सिविल सोसायटी संस्थाओं ने विश्व टाॅयलेट संगठन की स्थापना की थी। इसकी पहली बैठक सिंगापुर में हुई थी जिसमें तय किया गया था कि साफ सफाई के संकट के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए प्रति वर्ष 19 नवम्बर को विश्व टाॅयलेट दिवस मनाया जाये। इसी के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी इस तिथि को विश्व टाॅयलेट दिवस के रुप में घोषित किया और तब से लगातार इसे मनाया जा रहा है। इस वर्ष भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने 19 नवम्बर को विश्व टाॅयलेट दिवस के रूप में मनाया तथा इस बार इसकी थीम “समानता के साथ सम्मान” घोषित की गयी थी। स्वच्छता और इससे जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए भारत में भी 1999 में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत में पूर्ण स्वच्छता लाना था और 2012 तक खुले में शौच की समस्या को खत्म करना था। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 1990 के दशक में करीब 90 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ लेकिन इस दौरान ग्रामीण क्षेत्र में शौचालय का उपयोग करने वालों की दर में केवल एक प्रतिशत की वृद्धि हुई (http://mdws.gov.in/)।

 

स्वच्छता के अभाव के कारण होने वाली बीमारियों के चपेट में आने के खतरे को महसूस करते हुए भारत सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के जरिए देश को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य 2019 तक के लिए निर्धारित कर दिया है। वर्ष 2019 तक खुले में शौच से मुक्त कराने के सम्बन्ध में एक कार्ययोजना बनाई गई है। इसके तहत व्यक्तिगत, सामूहिक और सामुदायिक शौचालयों का निर्माण करके तथा ग्राम पंचायतों के माध्यम से ठोस एवं तरल कचरा प्रबन्धन के जरिए गाँवों को स्वच्छ रखने पर जोर है। कार्ययोजना के प्रमुख मुद्दे है - जरूरी बुनियादी ढाँचा तैयार करते हुए डिलीवरी व्यवस्था सशक्त बनाना। स्वच्छ भारत अभियान को जन आन्दोलन बनाने के लिए सभी हितधारकों को शामिल करते हुए व्यापक जागरुकता कार्यक्रम शुरू करना।


प्रधानमन्त्री ने 15 अगस्त को लाल किले से स्वच्छता का जो सन्देश दिया वह एक नई बात नहीं थी, किन्तु इसने देश में एक आन्दोलन का रूप ले लिया। आज समाज में जन चेतना का निर्माण हो रहा है और यह एक सामाजिक आन्दोलन का रुप ग्रहण कर रही है जो एक विकसित समाज की ओर बढ़ते कदम का परिचायक भी है। अब जरूरी यह है कि समाज के लोगों की मानसिकता में भी स्वच्छता आये।


पेयजल और स्वच्छता मन्त्रालय ने भी 2012 से 2022 के दौरान ग्रामीण स्वच्छता और सफाई कार्यनीति तैयार की है (http:// archive.india.gov.in/)। इस कार्यनीति का मुख्य प्रयोजन निर्मल भारत की संकल्पना को साकार करने की रूपरेखा प्रदान करना और एक ऐसा परिवेश बनाना है जो स्वच्छ तथा स्वास्थ्यकर है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे प्राप्त करने के लिए विभाग ने आने वाले वर्षों र्के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए निम्नलिखित कार्यनीति बनाई हैंः-

  • खुले में शौच की पारम्परिक आदत को पूरी तरह समाप्त करना

  • ठोस और तरल अपशिष्ट के सुरक्षित प्रबन्धन के लिए प्रणालियों को प्रचालित करना

  • उन्नत स्वच्छता व्यवहारों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन देना

  • सुभेद्य समूहों जैसे महिलाओं, बच्चों, वृद्ध और विकलांग व्यक्तियों पर विशेष ध्यान देना

  • सुनिश्चित करना कि प्रदाता के पास इस स्तर पर सेवाओं की प्रदायगी की क्षमता तथा संसाधन हैं

  • ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, पर्यावरण और सुभेद्य वर्गों से सम्बन्धित सार्वजनिक क्षेत्र एजेंसियों में सहयोग को प्रोत्साहित करना और समर्थ बनाना

  • कार्यनीति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए व्यापार, शिक्षा और स्वैच्छिक क्षेत्र के भागीदारों के साथ मिलकर कार्य करना इन कार्यनीतियों की सफलता हेतु निम्नलिखित लक्ष्य भी बनाए गएः-

  1. सम्पूर्ण स्वच्छता पर्यावरण का सृजनः 2017 तक एक स्वच्छ परिवेश की प्राप्ति और खुले में शौच की समाप्ति, जहाँ मानव मल अपशिष्ट का सुरक्षित रूप से प्रबन्धन और निपटान किया जाता है।

  2. उन्नत स्वच्छता प्रथाएँ अपनानाः 2020 तक ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोगों को, खास कर बच्चों और देखभालकर्ताओं द्वारा हर समय सुरक्षित स्वच्छता प्रथाएँ अपनाना।

  3. ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबन्धनः 2022 तक ठोस और तरल अपशिष्ट का प्रभावी प्रबन्धन इस प्रकार करना कि गाँव का परिवेश हर समय स्वच्छ बना रहे।


स्वच्छताः समस्या व सामाजिक मानसिकता


स्वास्थ्य और स्वच्छता पूर्णतः मनोवैज्ञानिक और सामाजिक धारणा है। स्वस्थ रहने की चाह प्रत्येक मनुष्य को होती है किन्तु स्वच्छ रहने की आदत सभी में नहीं होती। कुछ लोग स्वच्छता पसन्द करते हैं और कुछ लोग गन्दगी फैलाने का काम करते हैं। मनोवैज्ञानिक आधार पर इसकी समीक्षा की जाय तो यह ज्ञात होगा कि जो लोग गन्दगी फैलाते हैं वे दो तरीके के होते हैं, पहले अशिक्षित और अज्ञानी होते हैं। दूसरे प्रकार के लोग असामान्य प्रकृति के होते हैं ऐसे लोग किसी ना किसी तरह की मानसिक विकृति के शिकार होते है। हमें समाज के ऐसे लोगों को भी स्वच्छता के प्रति जागरूक करने का महत्वपूर्ण कार्य करना है।


समाज में जो लोग रहते हैं उनका अपना एक परिवेश होता है और सफाई ऐसी चीज है जो अनुकरण से भी सीखी जाती है। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है कि व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर स्वच्छता का स्तर भी अलग अलग होता है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि जो लोग सामाजिक और आर्थिक आधार पर उच्च दर्जा प्राप्त है वे अधिक गन्दगी नहीं फैलाते, वहीं अभाव ग्रस्त और वंचित लोग गन्दगी फैलाने में अधिक योगदान देते है। शहरों में स्लम की बढ़ती संख्या और इससे उपजती कई तरह की बीमारियाँ इसका एक उदाहरण है। हालांकि यह सभी लोगों के साथ सही ही हो ऐसा जरुरी नहीं है। कुछ गरीब और वंचित परिवारों में भी स्वच्छता का स्तर काफी अधिक देखने को मिलता है साथ ही इसके विपरीत अधिक संपन्न परिवारों में भी गन्दगी का अम्बार देखाने को मिलता है। किन्तु यह भी सही है जैसा कि एक बार पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधीजी ने भी कहा था कि जो वंचित और गरीब है उनसे पर्यावरण सुरक्षा और गन्दगी नहीं फैलाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? जो अपने जीवन के मूलभूत साधनों की प्राप्ति ही सही तरीके से नही कर पाते उनसे वास्तव में गन्दगी के कारकों को रोकने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। किन्तु स्वच्छता ऐसी चीज है जिसे करने के लिए आर्थिक मजबूती की आवश्यकता भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति जो स्वच्छता के प्रति जागरूक है और जो इसे अपनाना चाहता है वह बिना किसी आर्थिक कठिनाई के स्वच्छ रह सकता है लेकिन इसके लिए उसको जागरूक होने के साथ इस तरह की प्रवृति

बढ़ाने के उपाय करने होंगे।


जहाँ भी गन्दगी फैलाने पर दण्डात्मक व्यवस्था है वहाँ डर की वजह से लोग गन्दगी नही फैलाते और जहाँ ऐसी व्यवस्था नहीं है वहाँ गन्दगी का अम्बार लग जाता है। इसका एक साधारण उदाहरण दिल्ली मेट्रों रेल में देख सकते हैं। यहाँ थूकने पर 200 रुपये का जुर्माने के प्रावधान के साथ-साथ इसकी कड़ी निगरानी भी है तो वहाँ कोई नही थूकता, लेकिन वहीं भारतीय रेलवे में इस तरह की निगरानी नहीं होने के कारण गन्दगी बुरी तरह से फैली है।


प्रधानमन्त्री ने 15 अगस्त को लाल किले से स्वच्छता का जो सन्देश दिया वह एक नई बात नहीं थी, किन्तु इसने देश में एक आन्दोलन का रूप ले लिया। महात्मा गाँधी की जयन्ती के अवसर पर देश भर में स्वच्छता अभियान की शुरुआत की गई और लक्ष्य रखा गया कि 2019 में महात्मा गाँधी की 150वीं जयन्ती के अवसर पर देश को गन्दगी मुक्त कर दिया जाय। गाँधीजी ने भी आजादी की लड़ाई के साथ-साथ गन्दगी से भी लड़ाई करने का आह्वान देशवासियों से किया था। स्वच्छता का सन्देश और स्वच्छ रहना एक आदर्श समाज की पहली शर्त है। इसके अनुरूप आज समाज में जन चेतना का निर्माण हो रहा है और यह एक सामाजिक आन्दोलन का रुप ग्रहण कर रही है जो एक विकसित समाज की ओर बढ़ते कदम का परिचायक भी है। अब जरूरी यह है कि समाज के लोगों की मानसिकता में भी स्वच्छता आये क्योंकि इसके बिना हम अपने परिवेश से गन्दगी नहीं हटा सकते।


एक अभिनव पहल के रुप में स्वच्छ भारत अभियान शुरू कर तो दिया गया है किन्तु, इसके साथ-साथ इस अभियान की कुछ चुनौतियां भी सामने दिख रही है। समाज के सभी नागरिकों को यह बात भली भाँति समझ लेनी होगी, कि हमें भारत को स्वच्छ बनाना है और यह कार्य केवल झाड़ू लगाने मात्र से सम्भव नहीं है। इसके लिए समाज की सामूहिक चेतना में परिवर्तन आना जरुरी है। आज समाज में कई ऐसे लोग मौजूद है जिन्हें साफ-सफाई के बारे में कोई गम्भीर जानकारी नहीं है या इसके प्रति वे जागरूक नहीं है। हमारा पहला कार्य उन्हें जागरूक करना होना चाहिए। अन्यथा सफाई करने वालों से अधिक संख्या गन्दगी फैलाने वालों की है। साथ ही मानव स्वभाव के अनुरूप हम यह देखते हैं कि जहाँ भी गन्दगी फैलाने पर दण्डात्मक व्यवस्था है वहाँ डर की वजह से लोग गन्दगी नही फैलाते और जहाँ ऐसी व्यवस्था नहीं है वहाँ गन्दगी का अम्बार लग जाता है। इसका एक साधारण उदाहरण दिल्ली मेट्रों रेल में देख सकते है। यहाँ थूकने पर 200 रुपये का जुर्माने के प्रावधान के साथ-साथ इसकी कड़ी निगरानी भी है तो वहाँ कोई नही थूकता, लेकिन वहीं भारतीय रेलवे में इस तरह की व्यवस्था नहीं होने के कारण गन्दगी बुरी तरह से फैली है। यह हमारी दोहरी मानसिकता का परिचायक है। क्या हम केवल डर से गन्दगी को फैलाते या रोकते है? हम सिंगापुर एवं अन्य देशों का उदाहरण देखते हैं कि वहाँ पर भी गन्दगी फैलाने पर भारी जुर्माना लगता है इसकी वजह से ऐसे देशों में अधिक सफाई है। देश के सभी लोगों को इस दिशा में अपनी सोच बदल लेने की जरूरत है, तभी स्वच्छ भारत की परिकल्पना साकार हो सकती है।


साथ ही यदि स्वच्छता के साथ हम अपने स्वास्थ्य की तुलना कर सकते हैं तो भी हम इसके प्रति जागरूक होंगे। जब हम स्वच्छ रहते हैं, अपने परिवेश को गन्दा नहीं करते तो इससे रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया का विनाश होता है और बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। इससे हमारा स्वास्थ्य सही रहता है और हम बीमार कम पड़ते है। इस दिशा में विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में भी बताया गया था कि यदि भारत की आबादी प्रतिदिन खाना खाने के पहले साबुन से अपना हाथ धोना शुरू कर दे तो करीब 50 फीसदी बीमारियों को खत्म किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में वर्ष 2008 में स्टाॅकहोम में आयोजित वार्षिक जल सप्ताह के दौरान लोगों को जागरूक करने के लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया गया था और प्रति वर्ष 15 अक्टूबर को ग्लोबल हैण्ड वाशिंग डे मनाया जाने लगा। आरम्भ में इसको स्कूली बच्चों के बीच 70 से अधिक देशों में चलाया गया। इसी तरह के अन्य कई अभियान जो स्वच्छता और साफ-सफाई से जुड़े हैं वह लोगों में जागरूकता लाने के उद्देश्य से समय-समय पर चलाये जाते रहे हैं।


इन सबका मकसद यही है कि लोगों की मानसिकता सफाई के प्रति बदले। यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि आखिर क्यों सफाई जैसी चीज के लिए भी लोगों को प्रोत्साहित करना पड़ रहा है, जबकि यह स्वतः करने वाली चीज है। इसके पीछे व्यक्तिगत सोच और प्रेरणा काम करती है। कुछ लोग आलस की वजह से सफाई पर ध्यान नहीं दे पाते, कुछ लोग जागरूकता की कमी के कारण ऐसा करते हैं और कुछ लोग झूठी शान के लिए भी ऐसा करते है। अब जबकि यह सिद्ध है कि सफाई हमारे स्वयं के लिए, समाज के लिए और पूरे विश्व के लिए महत्वपूर्ण है तो इसके प्रति लोगों को गम्भीर होना ही पड़ेगा। साथ ही जहाँ भी जागरूकता की कमी है वहाँ सरकार और सिविल सोसायटी को इसके लिए प्रेरक की भूमिका निभानी होगी। लोगों में जागरूकता और सफाई के महत्व के लिए सभी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी एक स्वच्छ और विकसित समाज तथा स्वच्छ भारत का निर्माण सम्भव है।


सन्दर्भः

(https://www.who.int/)

(http://mdws.gov.in/)

(http://archive.india.gov.in/)

(http://www.mdws.gov.in/)


लेखक नीतिगत मामलों की एक प्रतिष्ठित शोध संस्था से जुड़े हैं। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से 2010 में यंग स्काॅलर अवार्ड से सम्मानित। ईमेलः gauravkumarsss1@gmail.com


साभार : योजना जनवरी 2015

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