महिलाओं ने बनाया सौ प्रतिशत शौच मुक्त क्षेत्र

महिला फीचर सर्विस

ये महिलाएं खुद राजगीर बन गईं और उन्होंने हर घर को शौचालय बनाने के लिए प्रेरित किया। आज मध्यप्रदेश का यह छोटा सा गाँव खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त है। आइए गाँव की प्रेरक यात्रा की पूरी कहानी के बारे में जानें :-

यह कहानी सेज पब्लिकेशन्स द्वारा प्रकाशित और एडान ए क्रोनिन, प्रदीप के मेहता और अंजल प्रकाश द्वारा सम्पादित पुस्तक जेंडर इश्यूज इन वाटर एंण्ड सेनिटेशन प्रोग्राम्सः लेसन फ्रॉम इण्डिया के अंश के तौर पर ली गई है। आइए मध्यप्रदेश के सिहोर जिले के बुधनी ब्लॉक में विंध्याचल की तलहटी में स्थित रतनपुरा की गीता बाई और दूसरी महिलाओं से मिलें जिन्होंने अपने गाँव को खुले में शौच से मुक्त और साफ बनाने में कड़ी मेहनत की और लोग अब डायरिया, बुखार और दूसरी तरह की बीमारियों से ग्रसित नहीं हैं।

मध्य प्रदेश में विंध्याचल की तलहटी के सिहोर जिले के बुधनी ब्लॉक के गाँव रतनपुरा में दिसम्बर 2010 तक गाँव के 113 घरों में महज एक शौचालय था।

गाँव अस्वच्छ था और चारों तरफ खुले मल और गन्दगी की तीक्ष्ण गंध फैली रहती थी। इसके कारण गाँव वालों में डायरिया, बुखार और दूसरी कई बीमारियाँ प्रचलित थीं और लोगों की ज्यादा कमाई इलाज पर ही खर्च होती थी। महिलाएं अपने आत्मसम्मान और गरिमा को गंवाती रहती थीं। मासिक धर्म के समय दूर तक जाने और स्वास्थ्यकर स्वच्छ स्थितियां कायम रखने में बहुत दिक्कतें होती थीं।

इसी पृष्ठभूमि में सीएलटीएस (कम्युनिटी लेड टोटल सैनिटेशन) में प्रशिक्षित ब्लॉक स्तरीय पदाधिकारियों ने गाँव में इस इरादे से प्रवेश किया कि इसे खुले में शौच से मुक्त क्षेत्र बनाकर ही रहेंगे। इन पदाधिकारियों को महिलाओं की तकलीफें अच्छी तरह से पता थीं। उन्होंने गाँव में खुले में शौच की आदत को समाप्त करने के इरादे से सम्पर्क किया। एक गाँव स्तरीय बैठक में महिलाएं धीरे-धीरे खुलीं और उन्होंने अपने अनुभव साझा करने शुरू किए।

एक बूढ़ी औरत सुखमनिया बाई ने बताया कि, `` बारिश के मौसम में खुले में शौच करना काफी चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा काम होता है। मुझे काफी दूर तक जाना होता है और मेरे कपड़े गन्दे हो जाते हैं।’’

सोलह साल की रमा ने बताया, “मुख्य सड़क के किनारे शौच करने के लिए जाना वास्तव में अपमानजनक लगता है। जब भी कोई गुजरता है तो हमें खड़ा होना पड़ता है और जब वह निकल जाता है तो हम फिर बैठते हैं। ज्यादातर समय हम अपनी ठीक से सफाई नहीं कर पाते और लड़के हम लोगों पर हंसते भी हैं।”

खुले में शौच के बारे में महिलाओं की अपनी प्रतिक्रियाओं और अनुभवों ने लज्जा, अपमान, पीड़ा और निरादर भरी स्थितियों को बदलने के लिए कार्रवाई करने को प्रेरित किया। महिलाएं इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि इन स्थितियों की वजह से सबसे ज्यादा वे ही पीड़ित हैं और वे खुले में शौच की आदत को अब जारी नहीं रखना चाहतीं।

सीएलटीएस के पदाधिकारियों ने महिलाओं से आरम्भिक चर्चा के बाद प्रेरक सत्रों की बातचीत में पुरुषों को भी शामिल किया। इन सत्रों के दौरान गीता बाई स्वाभाविक नेता के तौर पर उभरीं। उन्होंने कहा, “जब हम घर में बहू लाते हैं तो हम उसकी गरिमा के लिए ‘परदा’ (घूंघट) का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन दूसरे ही दिन हम उसे शौच के लिए घर से बाहर भेजते हैं, जिसे हर कोई अर्द्ध नग्न अवस्था में शौच करते हुए देखता है। हमें बताइए कि हमारा ‘परदा या मर्यादा’ तब कहाँ चली जाती है।” अन्य महिलाओं ने गीता बाई की बात का समर्थन किया और खुले में शौच की अपनी हर दिन की परेशानी और डर का उल्लेख किया।

एक बार जब गाँव वालों को महिलाओं के मुद्दे और लज्जा के मामले से जुड़े सवालों का सामना करना पड़ा तो सीएलटीएस के कार्यकर्ताओं ने उन्हें सुझाव दिया कि वे तात्कालिक समाधान के तौर पर साधारण शौचालय बनाने के लिए गाँव वालों को प्रशिक्षित करेंगे।

अगले दिन पाँच महिलाओं ने सुबह से गड्ढा खोदना शुरू किया और दोपहर तक पाँच शौचालयों का निर्माण पूरा कर लिया। यह गाँव में एक आन्दोलन की शुरुआत थी और अब वहाँ शौचालय निर्माण दिन भर का काम बनकर रह गया। जिसे महिलाओं द्वारा किया जा सकता था।

इस प्रक्रिया के दौरान नेता बनकर उभरीं महिलाओं ने निगरानी समितियाँ बनाईं और सीएलटीएस पदाधिकारियों के सहयोग से गाँव में खुले में शौच खत्म करने के लिए एक विलेज एक्शन प्लान बनाया। कई घरों ने सामान्य गड्ढे वाले शौचालय बनाने शुरू किए और दस दिनों के भीतर रतनपुरा गाँव के सभी घरो ने अपने गड्ढे वाले शौचालय बना डाले।

हालांकि पुरुष अभी भी खुले में शौच कर रहे थे। इस दौरान सीएलटीएस के कार्यकर्ता सफाई और स्वास्थ्य के  सम्बन्धों को जोड़कर चेतना फैला रहे थे, उनके इस काम के आधार पर महिलाओं ने पतियों को खुले में पेशाब करने और शौच न करने के लिए राजी कर लिया। निगरानी समितियों ने सुबह- सुबह सीटी के साथ सामान्य शौच क्षेत्रों में जाने वालों को रोकने के लिए गश्त शुरू कर दी। राधा बाई बड़ी खुशी के साथ बताती हैं, “जब हमारे पति खुले में शौच के लिए गए तो निगरानी समिति की सदस्यों ने सीटी बजाना शुरू कर दिया। इस घटना के बाद हमारे पति ने शौचालय बनाने का फैसला किया।”

26 जनवरी 2011 को गाँव सौ प्रतिशत खुले में शौच से मुक्त क्षेत्र बन गया। गाँव की एक बैठक में कुछ लोगों ने अपने सामान्य शौचालयों को कम लागत वाले लीच पिट टॉयलट में बदलने का फैसला किया। सीएलटीएस के कार्यकर्ताओं ने लीच पिट डिजाइन को समझने में उनकी मदद की और उसकी निर्माण प्रक्रिया को सस्ते तरीके से बनाने की सलाह भी दी ताकि उसे हर घर में बनाया जा सके।

महिला नेतृत्व ने आगे बढ़कर कुछ बुनियादी किस्म की राजगीरी कला सीखी, जो तब तक पुरुष का ही कौशल समझा जाता था। कई ने अपनी मुफ्त सेवाएं प्रदान कीं। गाँव के मुखिया, उनके पदाधिकारी और पंचायत राज संस्था के अन्य लोगों ने भी गतिविधियों का समर्थन किया। स्थानीय सप्लायरों से सामान खरीदते समय सामूहिक खरीददारी को प्रोत्साहित किया गया, ताकि अच्छी सौदेबाजी हो सके। इस काम के लिए ब्याज मुक्त ऋण भी दिया गया। सामान की कीमत घटाने के लिए स्थानीय बालू का इस्तेमाल किया गया। सामान दान दवारा भी लिए गए। रतनपुरा गाँव के छोटेलाल ने कहा ,`` सरपंच ने बालू और सीमेंट के बोरे का इंतजाम किया। उन्होंने ईंट भट्ठे से कर्ज भी दिलाया।

रतनपुरा गाँव के लोग अब अपने गाँव को खुले में शौच से मुक्त क्षेत्र बनाने की अपनी उपलब्धि पर गर्व कर सकते हैं।

गाँव के लोग खुले में शौच की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने के बाद अब चौतरफा सुधार को महसूस कर सकते हैं। उन्हें स्वास्थ्य, स्वच्छता, सामाजिक संयोजन और महिलाओं के प्रति उनके बढ़े सम्मान का फायदा मिला है। गाँव की महिलाएं बताती हैं, “इस साल न तो मक्खियाँ दिखीं न ही मच्छर, पहले हमारे गाँव में बुखार, हैजा और डायरिया की स्थिति भी बुरी थी।”

पुरुष कहते हैं, “हमें अच्छा लगता है कि अब महिलाएं बोलने लगी हैं। पहले वे घर से ज्यादा बाहर नहीं निकलती थीं। अब वे बैठकों में आने लगी हैं।” समुदाय के स्तर पर भी सोच में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। “अब हम एक समुदाय के तौर पर बैठते हैं और महत्त्वपूर्ण सामुदायिक मुद्दे जैसे कि सड़क, नाली, जानवरों के लिए बाड़े बनाने वगैरह पर एक साथ बात करते हैं। हम एक साथ आते हैं और निर्णय करते हैं कि किस प्रकार इनमें तेजी से सुधार करें।” जैसे-जैसे रतनपुरा की कहानी तेजी से पास के गाँवों तक फैलने लगी तो तमाम लोग खुले में शौच से मुक्त क्षेत्र और उसके फायदे को देखने आने लगे। रतनपुरा गाँव की महिलाएं अपना घेरा तोड़कर बाहर आईं और निजी तौर पर दूसरे गाँव वालों के साथ अपने अनुभव बाँटने पहुँच गईं।

सीएलटीएस लागू किए जाने के दौरान रतनपुरा गाँव की महिलाओं को जो अनुभव प्राप्त हुआ उससे उन्हें उन तमाम मिथकों से मुक्त होने में मदद मिली जैसे कि ,”शौचालय महंगे हैं, शौचालय बनाना सरकार का काम है, शौचालय के गड्ढे में गिरकर कोई मर भी सकता है।”

रतनपुरा की महिलाएं अब खुले में शौच मुक्त क्षेत्र (ओडीएफ) से आगे बढ़कर अपने गाँव में नए विकास के परिवर्तन की वाहक हो गई हैं। वे अपने, अपने बच्चों और उनके परिवार और समुदाय के लिए बेहतर भविष्य का निर्माण कर रही हैं।

अंग्रेजी से साभार अनूदित

साभार : बेटर इण्डिया वेबसाइट

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