सात्विक मुदगल
दिल्ली अपने बदबूदार कूड़े के ढेर, बन्द पड़े नालों और कूड़ा बीनने वाली फौज के लिए प्रसिद्ध है जो कि इस कचरे से अपनी आजीविका चलाते हैं। 1.74 करोड़ की जनसंख्या के साथ देश की राजधानी प्रतिदिन 8,000 टन कूड़ा उत्पन्न करती है। ऐसे में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा करने पर अहम सवाल यह है कि क्या नागरिक सच में अपने शहर को साफ करने के लिए कुछ कार्य करेंगे?
दिल्ली का 40 प्रतिशत कचरा जैविक होता है जिसे यदि ढंग से परिष्कृत किया जाए तो इससे उच्च गुणवत्ता वाली खाद बन सकती है। हाँ लेकिन आपको यह ध्यान रखना होगा कि जैविक खाद सामान्य कूड़े के साथ न मिले।
विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली की कूड़े की समस्या का हल हो सकता है यदि आवासीय सोसायटी के लोग अपने जैविक कचरे का निपटान अपने स्तर पर करना शुरू करें, क्योंकि इस कचरे में ज्यादातर किचन और बागवानी का कचरा शामिल होता है। समुदाय इस जैविक कचरे से पैसा कमा सकते हैं।
हम बताते हैं कैसे : दिल्ली का 40 प्रतिशत कचरा जैविक होता है जिसे यदि ढंग से परिष्कृत किया जाए तो इससे उच्च गुणवत्ता वाली खाद बन सकती है। हाँ लेकिन आपको यह ध्यान रखना होगा कि जैविक खाद सामान्य कूड़े के साथ न मिले। इससे जमीन में कूड़ा डालने की निर्भरता में कमी आएगी। यह प्रक्रिया कचरा भराव क्षेत्र से जैविक खाद के सड़न द्वारा उत्पन्न होने वाली मीथेन, जो कि ग्रीन हाउस गैस है की दुर्गंध से भी बचाती है।
दिल्ली का सामर्थ्य
देश का 50 प्रतिशत कचरा किचन से निकलता है। नई दिल्ली के राष्ट्रीय नगर कार्य संस्थान की प्रोफेसर श्यामला मणि के अनुसार प्रतिदिन एक दिल्ली वासी कम-से-कम 50 ग्राम का कचरा पैदा करता है। इस तरह से पूरा शहर न्यूनतम 870 टन किचन अपशिष्ट रोज पैदा करता है।
दिल्ली में तीन केन्द्रीयकृत कम्पोस्ट प्लांट नरेला, ओखला और भलस्वा में लगे हुए हैं, जिनमें 500 टन कचरा रोज कम्पोस्ट में बदला जाता है।
हरित क्षेत्र जैसे कि पार्क भी जैविक कचरा उत्पन्न करते हैं, जिससे कि उच्च गुणवत्ता वाली खाद बनाई जा सकती है। ग्रीनबन्धु पर्यावरण समाधान और सेवा के सह-संस्थापक सौरभ बर्धन ने कहा कि “परम्परागत तौर पर देखा जाए तो प्रति हेक्टेयर शहरी हरित क्षेत्र में 100 किलो बागवानी कचरा रोज होता है।” उनकी कम्पनी दिल्ली विश्वविद्यालय में विकेन्द्रीकृत कम्पोस्ट प्लांट चलाती है। दिल्ली में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 1,100 टन जैविक कचरे को सफाई कर्मचारी जला देते हैं। बर्धन ने कहा “किचन कचरे का तीन हिस्सा और बागवानी का एक हिस्सा मिलाने से उत्तम खाद बनती है।”
मणि के अनुसार भराव क्षेत्र में जाने वाला कम-से-कम 40 प्रतिशत कचरा खाद बनाने लायक होता है। उन्होंने कहा “इसमें बड़ी मात्रा में किचन और होटलों से निकला सामान्य और बागवानी कचरा होता है।”
दिल्ली में तीन केन्द्रीयकृत कम्पोस्ट प्लांट नरेला, ओखला और भलस्वा में लगे हुए हैं, जिनमें 500 टन कचरा रोज कम्पोस्ट में बदला जाता है। नेचर एण्ड वेस्ट मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड के प्रबन्धक सुभाष ने कहा कि कम्पोस्ट खाद को बेचना काफी चुनौतीपूर्ण होता है क्योंकि दिल्ली नगर निगम द्वारा मिलने वाली खाद में पथरीले टुकड़े मिले होते हैं।
नाली में पैसा बहाना-
वास्तव में दिल्ली में कुछ समुदाय पहले से ही लोकल स्तर पर कचरे का प्रबंधन करके मुनाफा कमा रहे हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि नगर निगम को इन समुदायों को कचरा प्रबंधन करने के एवज में कुछ प्रोत्साहन राशि देनी चाहिए।
चलिए मुनाफा कमाते हैं। दिल्ली अपने कचरे का निपटान करने में अपना भविष्य खर्च कर रही है। नगर निगम के साथ तैयार आधुनिक मसौदे के अनुसार ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का जो ढाँचा शहरी विकास मन्त्रालय ने बनाया उसके हिसाब से 30 लाख टन कचरे का निपटान 40 हेक्टेयर में किया जा सकता है। इससे कचरा भराव क्षेत्र का जीवन 20 साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। लेकिन दिल्ली जो कि प्रतिदिन 8,000 टन कचरे का उत्पादन करती है, के लिए 800 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है और वर्तमान में इसका खर्च 800 अरब का आएगा। दिल्ली के पास इतनी जमीन नहीं है। तुफैल अहमद जो कि पिछले तीन दशकों से दिल्ली में कचरा भराव का कार्य करते थे, ने बताया करीब 1,200 टन कचरे का परिवहन करने में काफी खर्च आता है। दिल्ली नगर निगम ने बताया प्रति टन कचरे का निपटान करने में 14,500 रुपए का खर्च आता है। बर्धन ने कहा इसका सबसे अच्छा तरीका विकेन्द्रीकृत प्लांट है।
हालाँकि वे चेतावनी देते हुए कहते हैं प्लांट तभी सफल हो पाएंगे जब कि आसान और सस्ती तकनीक का प्रयोग किया जाए। वास्तव में दिल्ली में कुछ समुदाय पहले से ही लोकल स्तर पर कचरे का प्रबंधन करके मुनाफा कमा रहे हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि नगर निगम को इन समुदायों को कचरा प्रबंधन करने के एवज में कुछ प्रोत्साहन राशि देनी चाहिए। दिल्ली के वास्तुकला और योजना स्कूल में आगंतुक प्रोफेसर सबीर पॉल के अनुसार नगर निगम को अपने राजस्व का एक हिस्सा इन प्लांट को प्रोत्साहन स्वरूप देना चाहिए।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के वरिष्ठ शहर आयोजक सुनील मेहरा ने बताया कि नगर निगम उन लोगों को सम्पत्ति कर में राहत देने के बारे में विचार कर रही है जो ठोस अपशिष्ट का प्रबंधन करते हैं। लेकिन इसके लिए एक नीति पर कार्य करना जरूरी है।
साफ-सुथरे इलाके के लिए छोटे कदम
दिल्ली में तीन जगहों पर लोग सफलतापूर्वक जैविक खाद का अलग-अलग तकनीकों द्वारा प्रबंधन कर रहे हैं :-
1. मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय
तकनीक- रैपिड कम्पोस्टिंग, कच्चा माल- बागवानी और किचन अपशिष्ट की 1:3 की मिलावट, अन्तिम उत्पाद- जैविक खाद, खाद बनाने का समय- 15-20 दिन, प्रति घर प्लांट लगाने की लागत- 1,350 रुपए, जमीन की जरूरत- 60 वर्गमीटर।
उन्होंने कम्पोस्टिंग कैसे की- मिरांडा हाउस की प्राध्यापिका ने कहा हम ठोस अपशिष्ट का प्रबंधन कैम्पस के अन्दर ही करना चाहते थे। 2013 में कॉलेज ने 4 लाख रुपए का निवेश एक जैविक खाद बनाने वाले प्लांट में किया। इसके लिए हम ग्रीनबन्धु पर्यावरण समाधान और सेवा के साथ सहबद्ध हुए। आज, कॉलेज रोज 60 किलो जैविक कचरे को कम्पोस्ट में बदल रहा है और उस खाद का इस्तेमाल अपने बगीचे में कर रहा है। कॉलेज प्रतिमाह खाद बेचकर 4,000 रुपए कमा रहा है और कचरे के परिवहन में लगने वाला 12,000 रुपए का खर्च भी बचा रहा है।
2. न्यू मोती बाग
तकनीक- एक्सेल कम्पोस्टिंग, कच्चा माल- किचन और बाग से निकलने वाला कचरा, अन्तिम उत्पाद- जैविक खाद, खाद बनने का समय- 15-20 दिन, प्रति घर प्लांट लगाने की लागत- 4,000 रुपए, जमीन की जरूरत- 300 वर्गमीटर
उन्होंने कम्पोस्टिंग कैसे की- न्यू मोती बाग के 110 एकड़ कैम्पस में 1,110 परिवार रहते हैं। 2013 में यहाँ के सामान्य निवासियों ने ग्रीन प्लानेट वेस्ट मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड के साथ मिलकर अपने परिसर में अपशिष्ट प्रबंधन प्लांट लगाया। कम्पनी ने इस प्लांट में 80 लाख रुपये का निवेश किया। यह प्लांट रोजाना 900 किलो बागवानी कचरा और 700 किलो किचन का कचरा प्राप्त करता है। प्लांट के महँगे होने की वजह से कम्पनी अपने नुकसान की भरपाई करने की कोशिश कर रही है। इस प्लांट के सीईओ राजेश मित्तल के अनुसार नगर निगम को उन समुदायों को पैसे देने चाहिए जो कि अपने कचरे का खुद ही प्रबंधन कर रहे हैं।
3. डिफेंस कालोनी
तकनीक- इएमआई माइक्रोबियल सॉल्यूशन आधारित गड्ढे वाली खाद, कच्चा माल- किचन से निकलने वाला कचरा, अन्तिम उत्पाद- जैविक खाद, खाद बनने का समय- 3-4 महीने, प्रति घर प्लांट लगाने की लागत- केवल 45 रुपए, जमीन की जरूरत- 30 वर्ग मीटर
उन्होंने कम्पोस्टिंग कैसे की- इस प्लांट का रख-रखाव निवासी खुद कर सकते हैं और यही इसे सबसे अलग बनाता है। इसे एसोसिएशन वाले टोक्सिक लिंक जो कि एक गैर-सरकारी संगठन है कि मदद से लगवा सकते हैं। यह सुविधा एक दशक पहले मात्र 70,000 रुपए में उपलब्ध थी। इसे किसी भी अनप्रयुक्त जगह पर लगाया जा सकता है। डिफेंस कालोनी की उप-सचिव शम्मी तलवार ने कहा कि हमारी प्राथमिकता कालोनी की दुर्गंध से निजात पाना था। एसोसिएशन ने दो कूड़ा बीनने वालों को प्रशिक्षित किया और उनकी सैलरी इसी प्लांट से निकल जाती है।
साभार : डाउन टू अर्थ 1-15 नवम्बर 2015
/articles/kacarae-sae-paaisaa-banaaen