ई-अवशिष्ट का कायदे से हो प्रबंधन

एमएच फूलेकर, भावना पाठक

अवशिष्ट प्रबंधन, आधुनिक समाज के लिए एक गंभीर चुनौती बना हुआ है और सतत विकास प्राप्त करने के लिए समन्वित प्रयास से इससे निपटने की आवश्यकता है। इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के व्यापक उपयोग ने संचार को आसान बना दिया, व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया और रोजगार के अवसर उत्पन्न किए हैं। हालांकि फायदे के साथ ही, इसकी वजह से बहुत-सी चुनौतियां भी सामने आई हैं, जैसे ई-अवशिष्ट की बढ़ती समस्या, जिसे समाज द्वारा सख्ती से निपटाए जाने की आवश्यकता है। वर्तमान परिदृश्य में, यह हमेशा ही संभव है कि अगर ई-अवशिष्ट के निपटान और कुशल प्रबंधन के लिए ठोस कानून नहीं बनाए गए और उचित कार्रवाई नहीं की गई तो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाएगा।

भारत 2005 के पर्यावरण स्थिरता सूचकांक में 101वें स्थान पर रहा और पर्यावरण प्रशासन के लिए उसे 0.10 अंक (66वीं श्रेणी) मिले। ई-अवशिष्ट मौजूदा पर्यावरण नियमों के अंतर्गत आंशिक रूप से प्रशासित है, लेकिन इसमें देश के भीतर उत्पन्न अवशिष्ट के प्रबंधन और संचालन का निर्धारण शामिल नहीं है।
 

ई-अवशिष्ट की संरचना

विभिन्न प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं में विभिन्न प्रकार की संरचना होती है और यह संरचना सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की वृद्धि के साथ बदल रही है क्योंकि दिन-प्रतिदिन भिन्न-भिन्न प्रकार के सॉफ्टवेयर और तकनीक उत्पन्न हो रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक रद्दी में लगभग 40रू, 30रू, के अनुपात में क्रमशः धातु, प्लास्टिक और अपवर्तित आॅक्साइड्स (योग, 1991) होता है। इसका धातुवार विवरण आकृति 1 में दिया गया है।

ई-अवशिष्ट में ऐसे इलेक्ट्रॉनिक और घरेलू उपकरणों से उत्पन्न कचरा शामिल होता है जो अपने मूल उपयोग के उद्देश्य के लिए उपयुक्त नहीं रह जाते हैं और सुधार, पुनर्चक्रण और निपटान के लिए ही होते हैं। इस तरह के अवशिष्ट में कम्प्यूटर, सेल्युलर फोन, निजी स्टीरियो सरीखे बिजली और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की विस्तृत रेंज के साथ ही एयर कंडीशनर और रेफ्रिजरेटर आदि जैसे बड़े घरेलू उपकरण भी शामिल हैं। ई-अवशिष्ट का निपटान अक्सर अनौपचारिक पुनर्चक्रण केंद्रों में होता है, जहां पुनः उपयोग या हाथ से तोड़े जाने के लिए इन्हें पृथक किया जाता है और बहुमूल्य धातुओं के लिए चुनकर साथ किया जाता हैं। फिर इन्हें अकुशल और विषाक्त-उत्पादक व्यवस्था में नष्ट किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण रासायनिक तत्वों और यौगिकों की बड़ी संख्या से मिलकर बने हो सकते हैं। मिसाल के लिए, एक सेल्युलर फोन में रासायनिक आवर्त सारणी के 40 से भी ज्यादा तत्व शामिल हो सकते हैं (यूएनईपी 2009)। ई-अवशिष्ट में पाये जाने वाली सबसे आम धातुओं में स्टील (लोहा), तांबा, अल्युमिनियम, टिन, सीसा, गिलट, चांदी, सोना, आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, इंडियम, पारा, रुथेनियम या दयाता, सैलिनियम वैनेडियम और जस्ता शामिल हैं (चेन व अन्य, 2011)।
भारत में ई-अवशिष्ट उत्पादन

दुनिया भर में प्रतिवर्ष उत्पन्न बिजली और इलेक्ट्रॉनिक कचरे खास तौर पर कम्प्यूटर और टेलीविजन की मात्रा ने खतरनाक रूप ले लिया है। 2006 में, अंतरराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स पुनर्चक्रण संघ (आइएईआर) ने अनुमान लगाया कि 3 अरब ड़लेक्ट्रॉनिक और बिजली के उपकरण 2010 तक डब्ल्यूईईई या ई-अवशिष्ट बन जाएंगे। यह 2010 तक 40 करोड़ इकाई प्रतिवर्ष की औसत ई-अपशिष्ट उत्पादन दर के समान होगा। विश्व स्तर पर, हर साल लगभग 200 से 500 लाख टन (मिलियन टन) ई-अवशिष्ट का निपटान किया जाता है, जो सभी नगर पालिकाओं के ठोस अपशिष्ट के 5 प्रतिशत हिस्से के समान हैं।

ऐसा आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि भारत में कितना अपशिष्ट उत्पन्न होता है या कितने का निपटारा किया जाता है। गैर सरकारी संगठनों या सरकारी संस्थाओ द्वारा किए गए स्वतंत्र अध्ययनों के आधार पर इस बारे में आंकलन किए गए हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को रिपोर्ट के अनुसार, देश में सालाना 72 लाख टन खतरनाक औद्योगिक अपशिष्ट, 4 लाख टन ड़लेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट, 15 लाख टन प्लास्टिक अपशिष्ट, 17 लाख टन चिकित्सा अपशिष्ट और 480 लाख टन घरेलु अपशिष्ट आता है। सीपीसीबी (केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड) का अनुमान था कि यह 2012 तक 8 लाख टन या 0.8 मिलियन टन की सीमा को पार कर जाएगी।
 

मानव और पर्यावरण पर खतरनाक प्रभाव

भारी धातुओं से होने वाला प्रदूषण, दुनिया की प्रमुख पर्यावरण समस्याओं में से एक है, जो खनन, ऊर्जा और ईंधन उत्पादन, विद्युत लेपन या इलेक्ट्रोप्लेटिंग, अपशिष्ट गाद उपचार और कृषि जैसी विभिन्न मानवीय गतिविधियों के माध्यम से वातावरण में जारी किया गया है। भारी घातु या ट्रेसध्अवशेष धातु, जो अवशेष त्तत्वों के एक बड़े समूह से संबद्ध है, औद्योगिक और जैविक दोनो रूप में ही महत्वपूर्ण है। प्रारंभ में, भारी धातुएं प्राकृतिक घटकों के रूप में मिट्टी में स्वाभाविक रूप से मौजूद थीं, लेकिन अब मानव गतिविधियों की वजह से वातावरण में भारी धातुओं की उपस्थिति में तीव्र वृद्धि हुई है। दुनिया भर में यह एक व्यापक समस्या है, यहां मिट्टी में क्रोमियम, तांबा, कैडमियम, पारा और आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं की अत्यधिक मात्रा उपस्थित हो सकती है।

यह स्पष्ट है कि ई-अवशिष्ट में भारी धातुओं की एक बड़ी मात्रा शामिल होती है। कई शोध अध्ययनों में यह सूचित किया गया है कि कैसे ये भारी धातुएं पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। सीडी (कैडमियम) का उजागर होना टीएसएच (थायराइड-उत्तेजक हार्मोन) और एफटी-4 स्तर को प्रभावित करने वाला पाया गया (ईजिमा व अन्य), 2007 (ओसियस एल अल., 1999)। अध्ययन इंगित करते हैं कि पशुओं में मप्तिष्कमेरू द्रव और मस्तिष्क डायोडिनेज़ के ट्रांसथाइरेटिन स्तर में संभावित विघटन या लोप, सीसा, कैडमियम और पारे की वजह से होता है (मोरी एट अल., 2006य सोल्डिन और एशनर, 2007य झेंग व अन्य, 2001)। ई-अवशिष्ट प्रसंस्करण द्वारा उत्पन्न प्रदूषण मानव शरीर पर विषाक्त या जेनोट्रॉक्सिक प्रभाव पैदा करते हैं, ये न केवल श्रमिकों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं, बल्कि स्थानीय वातावरण में रहने वाले वर्तमान निवासियों और भविष्य की पीढि़यों के लिए भी हानिकारक हैं (लियू व अन्य, 2009)।

ई-अवशिष्ट की जटिल प्रकृति के कारण इसका प्रबंधन मुश्किल होता जा रहा है, तथापि कचरा प्रशोधन के लिए कुछ निश्चित तकनीक उपलब्ध है। इस मुद्दे पर सामाजिक जागरूकता का अभाव और वर्तमान तकनीकों की कमियां मिलकर मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए सामान्यतया हानिकर है। पारिस्थितिकी प्रौद्योगिकी इस अवशिष्ट का प्रशोधन समय की मांग है। जैविक उपचार प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए अध्ययन किए गए हैं और इस अध्ययन से ई-अवशिष्ट में उपस्थित भारी धातुओं के प्रशोधन के तरीके विकसित किये गये हैं। अध्ययन से निष्कर्ष निकलता है कि पर्यावरण को साफ करने के लिए ई-अवशिष्ट में मौजूद भारी धातुओं के उपयोग के लिए सशक्त रोगाणुओं का उपयोग किया जा सकता है।

इसकी वजह से श्रमिक जन्म-दोष की अधिक घटनाओं, शिशु मृत्यु दर, तपेदिक, रक्त संबंधी रोग, प्रतिरक्षा प्रणाली में विसंगति, गुर्दे और श्वसन प्रणाली की खराबी, फेफड़ों का कैंसर, बच्चों में मस्तिष्क का अल्प विकास और तंत्रिका और रक्त प्रणाली की क्षति की बीमारियों से पीडि़त हैं (प्रकाश और मैनहार्ट, 2010)।

निकारागुआ, ला चुरेसा, मानागुआ के घरेलू नगर निगम और औद्योगिक अपशिष्ट निपटान स्थल में रहने और कार्य करने वाले 11 से 15 बर्ष की आयु के 64 बच्चों में पीबीडीई (पॉली ब्रोमिनेटेड डाईइथाइल ईथर) सीरम या मेदा के स्तर की जांच के लिए एक पार-अनुभागीय अध्ययन आयोजित किया गया। इस अपशिष्ट निपटान स्थल पर सभी कचरा बीनने वालों में से लगभग आधे बच्चें थे (18 वर्ष से कम उम्र के)। इन बच्चों के मेदे में पीबीडीई की सांद्रता अब तक की जानकारी में सर्वोच्च पाई गई। इन अध्ययनों के परिणाम दिखाते हैं कि बचपन में ही पीबीडीई का जोखिम, अपशिष्ट निपटान स्थल में धुल के श्वसन और पेट में जाने की वजह से था, न कि दूषित भोजन के सेवन से , जैसा आम तौर पर अनुमान लगाया जाता है। शोध रिपोर्ट से पता चलता है कि कचरा बीनने वाले बच्चों में उच्च पोबीडीई स्तर पाया गया। उन्होंने इन बच्चों में भारी धातुओं की भी उच्च स्तर पर मौजूदगी पायी (अथानसियादोउ व अन्य 2008)। कचरा बीनने वाले बच्चों में भारी धातुओं के खतरे की जांच की गई (काउड्रा, 2005)। कूड़ा सफाई के काम में लगे बच्चों का रक्त-विश्लेषण दिखाता है कि काम न करने वाले संदर्भ समूहों की बनिस्बत आम तौर पर अपशिष्ट निपटान स्थल पर काम करने वाले बच्चों के खून में सीसे की अत्यधिक मात्रा उपस्थित थी। अपशिष्ट निपटान स्थल पर बाल श्रमिकों में कम से कम 28 प्रतिशत के रक्त में सीसे का स्तर रोग नियंत्रण एंव रोकथाम केंद्र (सीडीसी) की सिफारिश, 100 यूजीध्एल के समुदाय कार्रवाई स्तर से अधिक था। अपशिष्ट निपटान स्थल पर काम करने वाले बच्चों के स्त्त में पारा और कैडमियम की मात्रा भी काम न करने वाले संदर्भ समूहों के मुकाबले उच्च स्तर पर थी। हालांकि सीसे के विपरीत पारा और कैडमियम की मात्रा, उन स्तरों से काफी कम थी, जिनका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव देखा गया है। चित्र 3.2 एक निजी कंप्यूटर के विभिन्न हिस्सों को प्रदर्शित करता है, जिसमें भारी धातुएं, ब्रोमीनीकृत अग्निरोधक (बीएफआर) और प्लास्टिक उपस्थित हैं और कैसे वे मानव शरीर के विभिन्न हिस्सों को प्रभावित करते हैं। ई-अपशिष्ट पुनर्चक्रण स्थलों पर काम करने वाली गर्भवती महिलाओं और उनके भ्रूण में उपस्थित सेक्स हार्मोंस और ऑक्सीडेटिव समस्थिति को इनसे बाधा पहुंची थीं (झोउ व अन्य 2013)।

ई-अवशिष्ट में प्रदूषण

ई-अवशिष्ट में प्रदूषण या विषाक्त पदार्थ आम तौर पर सर्किट बोर्डों, बैटरी, प्लास्टिक और एलसीडी (लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले) में केंद्रित होता है। नीचे दी गई तालिका में इलेक्ट्रॉनिक और बिजली के खराब उपकरणों में उपस्थित प्रमुख प्रदूषकों को दिखाया गया है।

ई-अवशिष्ट का प्रबंधन

भारतीय संविधान अपनी बारहवीं अनुसूची के तहत नगर पालिकाओं को एक प्राथमिक जिम्मेदारी के रूप में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का दायित्व सौंपता हैं। अपशिष्ट प्रबंधन के संबंध में कानून बनाने के लिए अनुच्छेद 243 राज्य विधानमंडलों को शक्ति प्रदान करता है। नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन एवं संचालन) नियम, 2000 केन्द्र सरकार द्वारा अधिनियमित किया गया और यह अधिनियम 25 सितंबर 2000 से अस्तित्व में आया। अनुसूचियों में प्रदान किए गए नगरपालिका ठोस अवशिष्ट से निपटने के दिशा निर्देशों में से कुछ ई-अवशिष्ट के प्रबंधन के लिए प्रासंगिक हैं और इसे ई-वेस्ट रीसाइक्लिंग और निपटान योजना में एक मॉडल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। दिशा निर्देशों में शामिल हैं अवशिष्ट को घर से संग्रह करने के लिए अवशिष्ट का गृह संग्रह मलिन बस्तियों और विशिष्ट लोगों, होटलों, रेस्तरां, कार्यालय परिसर एवं वाणिज्यिक क्षेत्रों अवशिष्ट के अलगाव के लिए जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन उपयुक्त कचरा प्रसंस्करण तकनीक को अपनाना तथा प्राकृतिक तरीके से सड़नशील अक्रिय कचरों के लिए भूमि भरण को सीमित करना, अवशिष्ट का उचित संग्रह।

ई-अवशिष्ट के मुद्दे पर बढ़ती चिंता को देखते हुए भारत सरकार ने कई पहल का समर्थन किया है, खासकर सीपीसीबी द्वारा आयोजित ई-अवशिष्ट के प्रबंधन और संचालन जो मार्च  2008 में पर्यावरण की दृष्टि से ई-अवशिष्ट का दुरुस्त प्रबंधन के लिए दिशानिर्देश के प्रकाशन करता है।

दिशानिर्देश ई-अवशिष्ट के विभिन्न स्रोतों की पहचान के लिए व्यापक मार्गदर्शन प्रदान करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है और पर्यावरण के लिहाज से एक दुरुस्त तरीके से  ई-अवशिष्ट के निपटान और उसके संचालन के लिए दृष्टिकोण और पद्धति को आगे बढ़ाता है। इन दिशानिर्देशों में ई-अपशिष्ट संरचना एवं आर्थिक मूल्य की वस्तुओं के संभावित पुनर्चक्रण, ई-अवशिष्ट में संभावित खतरनाक सामग्री की पहचान, पुनर्चक्रण, पुर्नउपयोग और पुनर्प्राप्ति का विकल्प, उपचार और निपटान विकल्प एवं पर्यावरण को दृष्टि से दुरुस्त ई-अपशिष्ट उपचार प्रौद्योगिकीय जैसे विवरण शामिल हैं।

ई-अपशिष्ट उपचार प्रौद्योगिकी

ई-अपशिष्ट में विभिन्न खतरनाक भारी धातुओं और अन्य पदार्थ जैसै प्लास्टिक, पीडीबीई, बीएफआर आदि होते हैं। अगर ठीक उपाय नहीं किये गए तो ये घटक बातावरण में मनुष्य और पशु दोनों के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं। इसलिए जरूरी है कि ई-अवशिष्ट के वातावरण में पहुंचने से पहले इसका उचित प्रबंधन किया जाए। ई-अवशिष्ट के प्रबंधन के लिए उपलब्ध प्रौद्योगिकी में शामिल हैंय पुनर्चक्रण, दहन और भूमि भराव।

पुनर्चक्रण कुछ संदूषकों को तो दूर कर सकता है लेकिन ई-अवशिष्ट की बड़ी मात्रा फिर भी भूमि भराव में या ई-अवशिष्ट पुनर्चक्रण केन्द्रों में पहुंचकर संकेंद्रित रह सकती है जहां मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। ई-अवशिष्ट के वार्षिक प्रवाह में 8,20,000 घन टन शामिल है। पुनर्चक्रण के बावजूद हर सरल पर्यावरण में 5000 टन घन के साथ ई-अवशिष्ट सबसे बड़ा योगदान करता है (बेर्ट्रम,2002)। उपयोग से बाहर हो चुके रेफ्रीजरेटर, फ्रीज एवं वातानुकूलन इकाई ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाला क्लोरो कार्बन को उत्पन्न करने में भूमिका निभाते हैं और ये सब मिलकर भूमि भराव वाली जगह से इस तरह के खतरनाक गैस पैदा करने में सहयोग करते हैं (स्युत्ज,2004)। चीन और भारत में अनौपचारिक रिसाइक्लिंग ऑपरेशन के दौरान ई-अवशिष्ट से पैदा होते खतरनाक पदार्थों के प्रभाव से जो आंकड़े प्राप्त हुए हैं, वह सचमुच खतरे के सूचक हैं और सीसा पीबीडीई तथा डाइऑक्सिनध्यूरान” के बीच एक खतरनाक संबंध की ओर इशारा करता है तथा पर्यावरणीय घटकों (जैसे मिट्टी और हवा), बायोटा और मनुष्य में इसकी सांद्रता को निर्धारित करता है (सेपुलवेदा, 2010)।

ई-अवशिष्ट अक्सर या तो नगर निगम के अवशिष्ट के हिस्से के रूप में या फिर पहले से ही पुनर्चक्रण की प्रक्रिया से गुजर चुके ई-अवशिष्ट के बचे हुए भाग के रूप में जला दिये जाते हैं। ई-अवशिष्ट में पाये जाने वाले पदार्थों की विविधता के कारण ई-अवशिष्ट दहन इस मायने में एक जोखिम भरा काम है क्योंकि इससे जहरीले पदार्थ और संदूषक पैदा होते है और उसका फैलाव होता है। ई-अवशिष्टें को जलाये जाते समय या अवशेष के रूप में बची हुई राख से अक्सर गैस का रिसाव होता है। पॉलिब्रोमिनेटेड डिप्थेनाइल इथर्स (पीबीडीई) बेहद ज्वलनशील है, जो प्लास्टिक और अन्य घटकों के साथ मिला दिये जाते हैं। ऐसे यौगिक रासायनिक तौर पर प्लास्टिक के साथ गुंथे नहीं होते और इसलिए ये ई-अवशिष्ट की सतह है बहा ले जाते हैं और पर्यावरण में घुल जाते हैं (डेंग, 2007)।

उपलब्ध प्रशोधन प्रौद्योगिकियां
 

पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग)

ई-अवशिष्ट का पुनर्चक्रण सही मायने में नये पदार्थों को फिर से हासिल करने का एक विलगन या उसका विध्वंस है (कुई एंड झंग, 2008)। पुनर्चक्रण एक कंप्यूटर से उपयोगी सामग्री का 95रू और कैथोड रे टयूब मॉनिटर (लाडयू एण्ड लोवग्रोव) से सामग्री का 45रू फिर से हासिल करता है। जापान जैसे विकसित देशों में उच्च तकनीकी पुनर्चक्रण संचालन सुचारू तरीके से संपन्न होता है और इससे पर्यावरण पर न्यूनतम असर होता है (ऐजवा, 2008)।

आधुनिक प्रौद्योगिकी पर्यावरण पर कम से कम असर डालते हुए खराब हो चुके सीआरटी से उच्च स्तर के शीशा को फिर से हासिल कर सकती है (एंड्रेओला 2007)। पुनर्चक्रण एक पर्यावरणीय लाभ प्रतिसंतुलन से कहीं ज्यादा है अगर जीवाश्म ईंधन के दहन के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव के कारण अवशिष्ट लम्बी दूरी तक ले जाया जा सकता हैं (बारबा-गुइटीरेज, 2008 )।

कोबाल्ट, तांबा, कैडमियम, क्रोमियम, निकिल और जस्ता जैसे धातु संदूषक कृत्रिम तरीके से मिट्टी से कुशलतापूर्वक अलग किये गए। मैगनीज, निकिल और जस्ता ही सिर्फ लक्षित तत्व थे जिन्हें महत्वपूर्ण रूप से मृदा खनिज लवण से निक्षालित किया गया। लैड का निक्षालन धीमा था और 180 दिन से ज्यादा की अवधि तक वह अपूर्ण ही रहा।

ई-अवशिष्ट के संग्रह के दौरान प्रकट होने वाला जोखिम प्रमुख रूप से खतरनाक पदार्थों के कारण होता है जो घटकों के तोड़ने की वजह से अचानक निकल आता है या छलक आता है और जो संपुटित पदार्थ में पहले से ही होता है। धूल की विखंडित होने वाली पर्याप्त मात्रा के दौरान उसमें पायी जाने वाली खतरनाक वस्तु भी सामने आ सकती है या उसका सृजन हो सकता है (आईजीईएसए, 2009)।

(ई-अवशिष्ट की रीसाइक्लिंग प्रक्रिया भी प्रदूषण का कारण बन सकती हैं और इस प्रक्रिया से निकलने वाली जहरीली भारी धातु से भी स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य को खतरा पहुंच सकता है। ई-अवशिष्ट के लदान का अंतिम गंतव्य के रूप में चीन ही है और 1970 के दशक से ताइझू क्षेत्र में ई-अवशिष्ट के पुनर्चक्रण का काम जारी है (लुंडग्रेन, 2012)।

भस्मीकरण
भस्मीकरण एक नियंत्रित ओर पूर्ण दहन प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत उच्च तापमान (900-1000 डिग्री सेंटीग्रेड) पर विशेष डिजायन की गई भट्टी में अवशिष्ट जलाये जाते हैं। ई-अवशिष्ट के जलाए जाने का लाभ अपशिष्ट की मात्रा की कमी होना है ओर दहनशील सामग्री की ऊर्जा सामग्री के रूप में उपयोग है। कुछ पौधे रीसाइक्लिंग के लिए धातुमल से लोहा निकालने है। भस्मीकरण के परिणामस्वरूप पर्यावरण के हिसाब से कुछ  खतरनाक कार्बनिक पदार्थ कम खतरनाक यौगिकों में बदल जाते है। ई-अवशिष्ट के जलाए जाने के साथ जुड़े जोखिमों में गैसीय उत्सर्जन और अवशिष्ट राख से होने वाले संदूषक के निकास समेत निकास कर रहे गैसों के माध्यम से कण बंध प्रदूषण शामिल है। ये मुद्दे अब अपनी तरफ ध्यान खींचने लगे हैं (स्टनमोर, 2004, एलॉनरमार्क एण्ड ब्लोमक्विस्ट 2005, गलेट, 2007)।

भूमि भरावन
इस समय ज्यादातर ई-अवशिष्ट भूमि भरावन के कारण है (बारबा-गुटिरेज, 2008)। भूमि भरावन में खाइयां सपाट सतह पर बनायी जाती हैं। इन खाइयों में से मिट्टी निकाली जाती है और इसी में अवशिष्ट जलाये जाते हैं और जिसे मिट्टी की एक मोटी परत से ढ़क दिया जाता है। लेकिन आधुनिक तकनीक सुरक्षित है तथा प्लास्टिक या मिट्टी या घोल से बहा ले जाने वाले संग्रह बेसिन से बने हुए अभेद्य लाइनर जैसी कुछ सुविधाओं वाले भूमि भरावन के तरीके अपनाये जाते हैं और जो घोल से बहा ले जाकर अपशिष्ट उपचार संयंत्र में इकट्ठा करता है। भूमि भरावन पर ई-अवशिष्ट रखने के साथ जुड़े हुए जोखिम निक्षालन और खतरनाक पदार्थों के वाष्पीकरण के कारण हैं। इस परिप्रेक्ष्य में जो सबसे बड़ी समस्या है, वह ईईई पदार्थों की व्यापक विविधता और लंबे समय तक की संलग्नता है। ई-अवशिष्ट में मौजूद खतरनाक यौगिकों में एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है जो उनकी अनुकूलता को प्रभावित करती है जब भूमि भरावन में वो एक साथ मौजूद रहते हैं। परिणामस्वरूप एक ही समय पर सभी यौगिकों के निक्षालन तथा वाष्पीकरण से बचना मुश्किल है (बीएएन एंड एसवीटीसी 2002)।

ई-अवशिष्ट के प्रशोधन के लिए जैविक उपचार
‘जैविक प्रशोधन दूषित मिट्टी और भूमिगत जल को साफ करने के लिए रोगाणुओं का इस्तेमाल है’। रोगाणु बैक्टीरिया जैसे बहुत छोटे जीव होते हैं, जो स्वाभाविक तौर पर वातावरण में रहते हैं। जैविक उपचार निश्चित रोगाणुओं के विकास को बढ़ावा देता है जो दूषितों का इस्तेमाल भोजन और ऊर्जा के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करते हैं। संदूषक तेल और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों, घोलों तथा प्लास्टिक जैसे जैवोपचारण का उपयोग करते हुए प्रशोधन करते हैं। जैवोपचारण रोगाणुओं पर निर्भर करता है जो स्वाभाविक तौर पर मिट्टी और भूमिगत जल में रहते हैं। ये रोगाणु आमतौर पर उस स्थिति में नहीं होते हैं कि वो स्थान विशेष या समुदाय में परेशानी पैदा कर दें। उदाहरण के लिए सूक्ष्मजीव विकास के लिए पोषक तत्व आमतौर पर लांस और बाग में होते हैं और जौवोपचार के लिए आवश्यक पोषक स्तर बहुत ऊंचा नहीं होता है। जैवोपचारण प्रक्रिया के दौरान सूक्ष्मजीव धातुओं को नष्ट नहीं करते हैं लेकिन एक निश्चित यांत्रिकी (ईपीएए 2012) के जरिये वो उनकी रासायनिक विशेषताओं में बदलाव जरूर ला सकते हैं। जैवोपचारण के दौरान धातु रोगाणु अंतरूक्रिया के विभिन्न तंत्र को निम्नांकित चित्र में दिखाया गया है।
मौजूदा शौध अद्ययन भारी धातु सांद्रता, भौतिक-रासायनिक एवं ई-अवशिष्ट संदूषित मिट्टी का सूक्ष्म जैविक चरित्रण पर केंत्रित है। ई-अवशिष्ट धातु दूषित स्थल पर 16 आरडीएनए तकनीकी द्वारा अनुकूलित सूक्ष्मजीवों भी मूल्यांकित और चिह्नित किये गए हैं। मिट्टी वाले धातु का जौवोपचारण नियंत्रित पर्यावरण की स्थितियों के अंतर्गत किये गए हैं। इसके अलावा सूक्षम्जीवों को चयनित भारी धातुओं (च्इर्, द, ब्न, ब्क) के साथ अलग से निम्न सांद्रता से उच्च सांद्रता में न्यूनतम लवण माध्यम में अनावृत कराया गया और इसके लिए इनक्यूवेटर प्रकार के बरतन में कुप्पी विधि का इस्तेमाल किया गया। संभावित सूक्ष्मजीव लैड, तांबा, कैडमियम और जस्ता जैसी कुछ धातुओं की उच्च सांद्रता में जीवित पाए गए और उन्हें 16 आरडीएनए तकनीक, विस्फोट और वंशावली विश्लेषण से चिन्हित किया गया। ई-अवशिष्ट के जैवोपचारण के लिए स्वदेशी सूक्ष्मजीव को चिन्हित किया गया।

ई-अवशिष्ट प्रशोधन के लिए जैवोपचारण

वातावरण में विभिन्न रूपों में भारी धातुओं का प्रवेश सूक्ष्मजीवों के समुदायों और उनकी गतिविधियों में काफी संशोधन और बदलाव ला सकते हैं (डेलमैन, 1994, हायरॉकी, 1994 य स्टेजका एंड बेद्नार्ज, 1993)। भारी धातु आमतौर पर आवश्यक कार्य समूहों को अवरूद्ध करके, आवश्यक धातु आयनों को विस्थापित करके, जैविक अणुओं की सक्रिय संरचना को संशोधित करके सूक्ष्मजीवों पर एक निरोधात्मक कार्रवाई करते हैं। (डयोलमैन, 1994य गैड एंड ग्रिफिथ, 1978, वुड एंड वैंग, 1983)य  हालांकि अपेक्षाकृत कम सांद्रता में कुछ धातु (जैसे कोबाल्ट, तांबा, निकिल और जस्ता) सूक्ष्म जीवों के लिए आवश्यक है, क्योंकि वे धातुगत प्रोटीन और एंजाइमों के लिए महत्वपूर्ण सह कारकों प्रदान करते हैं (ईलैंड, 1981य डयोलमैन, 1994)।

परीक्षणों के अनुसार धातु धनायनों में बड़ी मात्रा बैक्टीरिया और शैवाल से मिश्रित है (स्ट्रैंडबर्ग, 1981)। अलग ग्राम पोजिटीव द्वारा धातु बंध एवं ग्राम निगेटिव बैक्टीरियाई कोशिका सतह का भी मूल्यांकन किया गया है (जुवार्कर, 1988 यस्ट्रैनबर्ग, 1981)। अधिशोषित अंतःक्रिया के अलावा कोसिका द्रव्य के भीतर धातु परिवहन और भंडारण, धातु बंधन प्रोटीन के रूप में अंतःकोशिकीय विषहीनता तंत्र जैसे सूक्ष्मजीव उपापचय संतुलन तंत्र द्वारा धातु आयन को संग्रह करने के काबिल है (सिल्वर, 1996)। भारी धातुओं को अलग करने में बैक्टीरिया, कवक, शैवाल और किरणजीवी जैसे सूक्ष्मजीव अत्यधिक प्रभावी हैं।

कोबाल्ट, तांबा, कैडमियम, क्रोमियम, निकिल और जस्ता जैसे धातु संदूषक कृत्रिम तरीके से मिट्टी से कुशलतापूर्वक अलग किये गए। मैगनीज, निकिल और जस्ता ही सिर्फ लक्षित तत्व थे जिन्हें महत्वपूर्ण रूप से मृदा खनिज लवण से निक्षालित किया गया। लैड का निक्षालन धीमा था और 180 दिन से ज्यादा की अवधि तक वह अपूर्ण ही रहा। लोहा, कार्बन और मैग्नीशियम जैसे खनिज लवण घटक भी निक्षालित किये गए लेकिन मिट्टी की मात्रा में अंतिम रूप से कमी केवल लगभग 10रू थी। औद्योगिक रूप से संदूषित मृदा का भी कुशलतापूर्वक निक्षालन किया गया और उनमें लगभग 69 प्रतिशत मुख्य विशैली धातु दब भी मौजूद थी। 175 दिनों के बाद ही तांबा, निकिल और मैगनीज हटाये जा सके। जो संदूषित मृदा पर सल्फर-ऑक्सीकरण की कार्रवाई के परिणाम से टपक रहा पानी सिर्फ धातु था और यह सल्फेट को कम बैक्टीरिया की एक मिश्रित संस्कृति युक्त एक अवायवीय बायोरिएक्टर का उपयोग करते हुए हासिल किया गया था, जो ठोस धातु सल्फाइड के रूप में तलछट में घुलनशील धातु समुदाय था। मैगनीज, निकिल और लैड को छोड़कर 98 प्रतिशत से ज्यादा धातु घोल से हटाये गए, हटाये गए धातु 80-90 प्रतिशत थे (व्हाइट, 1998)।

इलेक्ट्रॉनिक अवशिष्ट का पादपोपाय

पादपोपाय इंजीनियरिंग आधारित पद्धति का एक लागत प्रभावी विकल्प का पूरक हो सकता है। पादपोपाय मृदा प्रशोधन का वनस्पतीकरण वाला उपयोग है, जिसका सफल उपयोग उन जगहों पर किया गया है, जहां पीबीसी द्वारा संदूषण फैलाया गया है वहीं कार्बन संदूषक 15 लाख टन पहुंच गया है।

ई-अवशिष्ट की जटिल प्रकृति के कारण इसका प्रबंधन मुश्किल होता जा रहा है, तथापि कचरा प्रशोधन के लिए कुछ निश्चित तकनीक उपलब्ध है। इस मुद्दे पर सामाजिक जागरूकता का अभाव और वर्तमान तकनीकों की कमियां मिलकर मानवीय स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए सामान्यतया हानिकर है। पारिस्थितिकी प्रौद्योगिकी इस अवशिष्ट का प्रशोधन समय की मांग है। जैविक उपचार प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए अध्ययन किए गए हैं और इस अध्ययन से ई-अवशिष्ट में उपस्थित भारी धातुओं के प्रशोधन के तरीके विकसित किये गये हैं। अध्ययन से निष्कर्ष निकलता है कि पर्यावरण को साफ करने के लिए ई-अवशिष्ट में मौजूद भारी धातुओं के उपयोग के लिए सशक्त रोगाणुओं का उपयोग किया जा सकता है।

प्रदूषक उपकरणों में उपस्थिति

आर्सेनिक

अर्धचालक, डायोड, माइक्रोवेव, एलईडी (प्रकाश-उत्सर्जक डायोड), सौर कोशिकाएं

बेरियम

इलेक्ट्रॉन ट्यूब,प्लास्टिक और रबर के पूरक, स्नेहक योजक

ब्रोमीनीकृत अग्निरोधक

जिल्द, सर्किट बोर्ड (प्लास्टिक), केबिल और पीवीसी केबिल

कैडमियम

बैटरी, पिगमेंट, रंग-रोगन, टांका, मिश्र धातु, सर्किट बोर्ड, कम्प्यूटर बैटरी, मॉनीटर कैथोड रे ट्यूब (सीआरटी)

क्रोमियम

रंजकध्रंग-रोगन, स्विच, सौर

कोबाल्ट

संवाहकध्इंसुलेटर

तांबा

केबल संचालित, तांबे के रिबन, कॉयल, सर्किट्री, रंग-रोगन

सीसा

लेड रिचार्जेबल बैटरी, सौर, ट्रांजिस्टर, लीथियम बैटरी, पीवीसी (पॉली विनाइल क्लोराइड) स्टैबलाइजर, लेजर, एलईडी, ताप-विद्युतीय तत्व, सर्किट बोर्ड

तरल स्फटिक

डिस्प्ले

लीथियम

मोबाइल फोन, फोटोग्राफिकध्वीडियो उपकरण (बैटरी)

पारा

तांबा मशीन और भापीय लोहे के पुरजे, घड़ियों और पॉकेट कैलकुलेटरों की बैटरी, स्विच, एलसीडी

गिलट

मिश्र धातु, बैटरी, रिले, रंग-रोगन, अर्धचालक



साभार : योजना, नवम्बर 2014

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