गंदगी का रूपांतरण सोने में

खुशवंत सिंह                                  

सवेरे-सवेरे रेल में सफर करते हुए किसी बड़े शहर से बाहर जाना एक घिनौना अनुभव हो सकता है। रेल-पटरियों के दोनों तरफ पुरुष कतारबद्ध होकर गुजरते हुए ट्रेन की तरफ अपनी पीठ करके खुले में मल त्याग करते हुए नजर आते हैं। इनका सीधा-सा तर्क है- जब वे ट्रेनों को गुजरते हुए नहीं देख सकते हैं तो उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि ट्रेनों के यात्री उन्हें ऐसा करते देख लें। हम उन्हें एकांत में मल-त्याग करने क्यों नहीं दे सकते? एक चीज और मैंने गौर की कि दिन की रोशनी में शौच जाने वालों में महिलाएं नहीं होती हैं। वे सार्वजनिक तौर पर ऐसा करने में संकोच करती हैं और जब तक बाहर निकलने लायक अंधेरा न हो जाए, तब तक वे पीड़ा झेलती हैं।

पटरियों के किनारे शौच करते देखना कितना घिनौना होता है

मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता, यदि इसी प्रकार के किसी अनुभव ने वैशाली (बिहार) के युवा बिन्देश्वर पाठक को इस क्षेत्र में कुछ करने के लिए प्रेरित किया होगा। वह बेहद साधारण परिवार से थे, वह अपने चाचा के साथ रहते थे, जो एक कॉलेज में चाय की दुकान चलाते थे, जबकि बिन्देश्वर पाठक अपने स्नातकोत्तर और उसके बाद डॉक्ट्रेट की पढ़ाई कर रहे थे। या फिर शायद यह भंगियों का कार्यस्थल था, जो अपने सिर पर बदबूदार मानव-मल कनस्तर (बम्मा) में ढोने का कार्य करते थे। इन दुर्भाग्यशाली कर्मियों की संख्या 8,00,000 थी, जबरन इस अपमानित कार्य को करते देख उनका खून उबलता था। प्रत्येक घर में शौचालय क्यों नहीं हो सकता और हर गली में पुरुषों एवं महिलाओं के लिए इसकी श्रृंखलाबद्ध कतार क्यों नहीं हो सकती? क्या ऐसे शौचालय निर्माण का कोई मार्ग नहीं था, जो खुद से साफ किए जा सकें और मानव-मल का सदुपयोग किया जा सके?

डॉ. पाठक राष्ट्रीय सम्मान के अधिकारी हैं

बिन्देश्वर पाठक ने उपयुक्त शौचालय की रूपरेखा तैयार की।

डॉ. पाठक को बिहार सरकार में मंत्री श्रीमती सुमित्रा प्रसाद के रूप में एक उत्साहित समर्थक मिली। उन्होंने श्री पाठक को हरी झंडी दे दी। इस प्रकार सन् 1970 में सुलभ शौचालय का आरंभ पटना में हुआ। आज इसने लाखों शौचालयों का निर्माण कर देश के कोने-कोने में अपना विस्तार किया है।

दो लीटर पानी द्वारा मानव-मल को छोटे गड्ढे में प्रवाहित किया जाता है, जहां कीटाणु उनका शोधन करते हैं, इससे उत्पन्न गैस द्वारा आग और बिजली का उत्पादन किया जाता है। गरीब से गरीब घरों में भी इस तकनीक का प्रयोग संभव था। आरंभ में किसी ने भी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। उन्हें बिहार सरकार में मंत्री श्रीमती सुमित्रा प्रसाद के रूप में एक उत्साहित समर्थक मिली। उन्होंने श्री पाठक को हरी झंडी दे दी। इस प्रकार सन् 1970 में सुलभ शौचालय का आरंभ पटना में हुआ। आज इसने लाखों शौचालयों का निर्माण कर देश के कोने-कोने में अपना विस्तार किया है। सन् 1991 में पद्मभूषण पुरस्कार से नवाजे जाने पर पाठक जी को राष्ट्रीय ख्याति मिली और पोप द्वारा इन्हें सम्मानित किया गया, वर्ष 1992 में पर्यावरण के लिए सेंट फ्रांसिस पुरस्कार की प्राप्ति से उन्होंने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की।

 

तब से डॉक्टर पाठक वंचित स्कैवेंजर परिवारों के बच्चों के लिए प्रशिक्षण एवं रोजगार उपलब्धि कार्यक्रमों का संचालन कर रहे हैं। पालम-हवाई-अड्डे के निकट स्थित इस संस्था में लड़के-लड़कियों को ड्राइविंग, बिजली-मिस्त्री, बढ़ई, टाइपिस्ट, कारीगर, दरजी इत्यादि का प्रशिक्षण दिया जाता है। उसी परिसर में शौचालयों के कई डिजाइन प्रदर्शित किए गए हैं। यह स्थान देखने लायक है, यदि मानव-अपशिष्ट द्वारा उत्पन्न समस्या की भयावहता का एहसास करना है, ऐसा लगेगा कि कुछ किया जा सकता है और किया जा रहा है। डॉ. बिन्देश्वर पाठक राष्ट्रीय सम्मान के अधिकारी हैं।

साभार : हिंदुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, 25 दिसंबर 1993। सुलभ इंडिया, मार्च 2014

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