Posted on 02 Dec, 2013 10:01 AMनील-नीर-परिधान सुशोभित हलधर-सा कृषि का उत्थान- करता हूं निष्प्राण ऊसरों को उर्वर में जीवन-दान। आ-आकर मिलती है मुझमें सरिताएं बहुसंख्य-सहास; सरस-नवीन कल्पनाएं ज्यों आती सिद्ध सुकवि के पास।
तुषाराद्रि ने आयोजित की, नद-नदियों में जो कि अनन्य- लंबी दौड़ प्रतिस्पर्धा, मैं उसमें सर्वजयी हूं धन्य। मेरे धावन की लंबाई, धारा की चौड़ाई और-
Posted on 01 Dec, 2013 03:51 PMजो है असीम उत्प्रेक्षा - सा विस्तीर्ण परम, आत्मा-जैसा निर्लिप्त, ज्योतियों का वैभव- जो है रहस्य का केंद्र, वेद में नेति-नेति, सरसी-समान ले विकच तारकों के कैरव।
जिसमें उड़ता उद्दाम विस्मयों का सौरभ, अद्भुत रस का परिपाक महाकवि-सा करता। ज्योतिषी - दूरगामिनी दृष्टि भी हार गई, सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्रों में भेद नहीं भरता।
Posted on 01 Dec, 2013 03:45 PMजो पाप-दुर्ग पर दुर्गा-सी टूटती सर्वदा घहर-घहर, हे अमरधुनी सरयू मैया! पावन है तेरी लहर-लहर। नगपति के व्यापक आंगन में कन्या-समान इठलाती है, धरती को करने हरा - भरा, ऊपर से नीचे आती है, करती प्रचंड गर्जना कभी तू मधुर-मधुर कुछ गाती है, पथबंधु वनों के वैभव से अपना संसार सजाती है, तेरे पानी से मोती-सी आभा उठती है छहर-छहर।
Posted on 01 Dec, 2013 03:36 PMशंकर से आज्ञापित मुनि ने, पर्वत के उच्च शिखर पर से- दी छोड़ कमंडलु की गंगा, वरदान-जलद जैसे बरसे। लहराती - बलखाती नीचे पिघले तांबे - सी चली धार- थी कल्लोलिनी ताम्रवर्णी-फेनिल, सवेग, नटखट अपार।
बह उठी तीन धाराओं में ‘नारदी तीर्थ’ घेरती हुई- मुनिवर कश्यप के आश्रम को कुंडलाकार घेरती हुई। कुछ दूरी पर फिर ‘अग्निनदी’ उन ‘वेदतीर्थ’ धाराओं को-
Posted on 01 Dec, 2013 03:29 PMसूर्यास्त तक बाट जोहती नदी में मछलियों की तरह उछलती-तैरती रही बेसब्री रेशे-रेशे में अंधेरा घुलते हुए भी बराबर सोचती है नदी कि कोई तो आएगा ही उसके जन्मदिन पर विसर्जित करेगा गेंदे के फूल गुलाब और दिए उसमें कोई तो जरूर ही आएगा वह बहती है सबके भीतर से दिन-रात दुलारती गुनगुनाती मैल धोती और ढोती हुई
Posted on 01 Dec, 2013 03:20 PMमेरी रीढ़ की हड्डी में यह जो सांप घुसकर फुफकार रहा है समुद्र की ऊब है दूर-दूर तक फैला गहरा है समुद्र जो शराब का रंग और तीखापन ओढ़े हुए हर ओर छा गया है सिल्वटहीन सब कुछ बेहोश है हवा का एक-एक कदम लड़खड़ा रहा है
बड़ा डर लगता है बीच समुद्र में आ गया हूं चिनार के पत्तों-सा कांप रहा है रोम-रोम
Posted on 30 Nov, 2013 03:50 PMबांधों के लाभ हानि से लेकर उनके पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक, पारिस्थिकीय, राजनैतिक असरों पर साहित्य सामने है। जिससे सिर्फ आंख मूंद
Posted on 30 Nov, 2013 03:25 PMड्रामा बेस्ड ट्रेनिंग प्रोग्राम आजकल काफी इफेक्टिव साबित हो रहा है। इससे किसी टॉपिक या थीम को अलग-अलग तरह से समझ सकते हैं।