सुधीर जैन
सुधीर जैन
चेन्नई बाढ़ त्रासदी से मिले सबक के बाद करें क्या
Posted on 24 Dec, 2015 04:51 PMबाढ़ ने दो हफ्ते तक चेन्नई को दहशत में बनाए रखा। इस आपदा में 200 से ज्यादा लोगों की मौत और आठ से दस हजार करोड़ के नुकसान के कारण राजनेताओं और सम्बन्धित सरकारी विभागों की चिन्ता स्वाभाविक थी। उनकी चिन्ता के प्रकार और उनकी चिन्ता की तीव्रता की जानकारी मीडिया लगातार देता रहा। यहाँ उसे दोहराने की जरूरत नहीं है।ज्यादातर पर्यावरण कार्यकर्ताओं को जो पिछले एक डेढ़ साल से कुछ चुप से थे उन्हें भी अपनी ज़िम्मेदारी के कारण मुखर होना पड़ा। पूरी गम्भीरता से इतना सब कुछ होने के बाद भी इस हादसे या कुदरती आफ़त के तर्कपूर्ण कारणों या आगे से बचाव या रोकथाम के उपायों पर सुझाव निकलकर अभी भी आ नहीं पाये।
हो सकता है कि ऐसा इसलिये हुआ हो क्योंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अकादमिक और व्यावहारिक विद्वानों को आगे बैठाकर उनसे बात करने का चलन अभी शुरू नहीं हो पाया है।
आपदाओं के कुदरती होने या न होने का सच
Posted on 11 Oct, 2015 02:50 PMइंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष
अचानक होने वाले हादसों से जिन्दगी में जो हाहाकार मचता है वो तो है ही, पर ऐसे हादसों का अन्देशा भी उतना ही भयावह होता है। सुरक्षित और निश्चिन्त जीवन के लिये मानव दस हजार साल से लगातार अपने विकास की कोशिश में लगा है। हमने पिछली सदी के आखिरी दशकों में आपदा प्रबन्धन पर ज्यादा गौर करना शुरू कर दिया था।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में तो आपदा प्रबन्धन अकादमिक विषय भी बन गया है। अपने नागरिकों को आपदाओं के अन्देशे से मुक्त रखने के लिये विश्व की लगभग सारी सरकारें सतर्क हैं। हम भी हैं। लेकिन अभी विकसित देशों के ज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहारे ही हैं। और हम नई पीढ़ी को सिर्फ इस बात के लिये तैयार कर रहे हैं कि आपदा की स्थिति आने पर एक जागरूक नागरिक की तरह उन्हें क्या-क्या करने के लिये तैयार रहना चाहिए।
गाँवों के सिर पर शहरों की गन्दगी
Posted on 30 Sep, 2015 04:14 PMस्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष
देश में साफ-सफाई के लिये नई सरकार का नए सिरे से अभियान का नारा लगाए जाने को एक साल होने आ रहा है। पिछले साल दो अक्टूबर को लगाए गए इस नारे के बाद क्या-क्या हुआ इसका कोई व्यवस्थित लेखा-जोखा नहीं मिलता। लेकिन जब-जब इस अभियान के लिये ब्रांड अम्बेसडरों का एलान होता है या नए नेता झाड़ू लेकर फोटो खिंचवाते हैं तो अहसास होता है कि नारा जिन्दा है।
सोचा गया होगा कि साफ-सफाई को लेकर देश के स्तर पर प्रचार की कमी है यानी जागरुकता की कमी है सो यह प्रचार अभियान जोर-शोर से चलाने का एलान किया गया होगा। यह एक तथ्य है कि गुलामी के दो सौ साल बाद आजाद हुए देश को चौतरफा अशिक्षा, कुपोषण और गरीबी विरासत में मिली थी।
नेहरू और राव जैसी संगत की जरूरत है नदियों को
Posted on 26 Sep, 2015 04:05 PMविश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
आजादी के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की सबसे बड़ी चिन्ता देश को आत्मनिर्भर बनाने की थी। खासतौर पर खाद्य सुरक्षा के मामले में। और इसके लिये उनके विश्वस्त विशेषज्ञ सलाहकारों ने बता दिया था कि इसके लिये जल प्रबन्धन सबसे पहला और सबसे बड़ा काम है।
कभी सूखे के मारे अकाल और कभी ज्यादा बारिश में बाढ़ की समस्याओं से जूझने वाले देश में नदियों का प्रबन्धन ही एकमात्र चारा था। नदियों का प्रबन्धन यानी बारिश के दिनों में नदियों में बाढ़ की तबाही मचाते हुए बहकर जाने वाले पानी को रोककर रखने के लिये बाँध बनाने की योजनाओं पर बड़ी तेजी से काम शुरू कर दिया गया था।
वह वैसा समय था जब पूरे देश को एक नजर में देख सकने में सक्षम वैज्ञानिक और विशेषज्ञों का इन्तजाम भी हमारे पास नहीं था। अभाव के वैसे कालखण्ड में पंडित नेहरू की नजर तबके मशहूर इंजीनियर डॉ. केएल राव पर पड़ी थी।
आग लगने पर कुँआ खोदने का खेल
Posted on 15 Sep, 2015 02:17 PMदिल्ली में देखें हो यहाँ पीने के पानी की किल्लत का रोना नया नहीं है। वैसे तो दुनिया में तमाम दे
हिमालय पर वैज्ञानिक निगरानी की दरकार
Posted on 08 Sep, 2015 01:34 PMहिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष
भूगर्भीय कालचक्र में हिमालय प्रकृति की एक नवीनतम कृति है। विशेषज्ञों के मुताबिक हिमालय अपनी रचना पक्रिया में है इसीलिये अस्थिर है और इसकी सारी हलचल अपने स्थिर होने की कोशिश के कारण है। ये तथ्य भूगर्भशास्त्रियों में कुतूहल तो पैदा करते ही हैं लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि भारत की जलवायु और मौसम को निर्धारित करने में हिमालय की बड़ी भूमिका है।
जनसंख्या और प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता
Posted on 04 Aug, 2015 11:08 AMआजादी के समय देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो न्यूनतम जरूरत की ढाई गुनी थी। तब अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हम भी जल सम्पन्न देशों की सूची में थे। नब्बे का दशक आते-आते जनसंख्या इतनी बढ़ गई कि प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल की आवश्यकता के लिहाज से हम सीमान्त स्थिति में पहुँच गए। जल प्रबन्धन के लगभग सारे लक्ष्य हासिल करने के बावजूद खेत तक सिंचाई का पानी पहुँचाने की हमारी हैसियत जवाब देती जा रही थी। जल संकट सामान्य अनुभव है। तीस साल पहले हमने इस संकट की तीव्रता महसूस की थी और बेहतर जल प्रबधन के लिये गम्भीरता से काम करना शुरू किया था। हालांकि आजादी मिलने के फौरन बाद ही जब पहली योजना बनाने का काम शुरू हुआ तब सिंचाई प्रणाली को और ज्यादा विस्तार देने की बात हमारे नेताओं ने समझ ली थी। तभी बाँध परियोजनाओं पर तेजी से काम शुरू कर लिया गया। हालांकि सन् 1950 का वह समय ऐसा था कि देश की आबादी 36 करोड़ थी।देश के पास प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता पाँच हजार घनमीटर थी। यानी अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक हर व्यक्ति की जरूरत से ढाई गुना पानी उपलब्ध था। लेकिन इस पानी का इस्तेमाल करने लायक हम नहीं थे। ज्यादातर खेती वर्षा आधारित थी। खेती के उपकरणों का इस्तेमाल ना के बराबर था। जैसे-तैसे जरूरत भर का अनाज पैदा करने की कोशिश शुरू हुई। उसी का नतीजा था कि ब्रिटिश सरकार की बनाई सिंचाई व्यवस्था को तेजी से विस्तार देने का काम शुरू किया गया।
पृथ्वी के बदलते तेवर और हमारे मौसम
Posted on 23 Apr, 2015 03:08 PMपृथ्वी दिवस पर विशेष
बेमौसम बारिश, बारिश के दिनों में पानी कम गिरना और इन आपदाओं की आवृत्ति दशक-दर-दशक बढ़ना प्रत्यक्ष रूप से नई जरूर है लेकिन विशेषज्ञों ने दशकों पहले आगाह करना शुरू कर दिया था। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 1980 और 1990 के दशकों में कई गम्भीर विचार-विमर्श हो चुके हैं। हालांकि जलवायु परिवर्तन के नाम से जब भी इस संकट पर बात हुई वह भूताप यानी ग्लोबल वार्मिंग के इर्द-गिर्द घूमती रहीं। और भूताप का मसला कार्बन उत्सर्जन करने वाले उद्यमों-उपक्रमों पर चिन्ता जताने के आगे ज्यादा नहीं बढ़ पाया।
कुछ दिनों या महीनों के अन्तर से मौसम का बदलना चाहे नियमित हो या अनियमित हो, इसे हम ऋतु परिवर्तन या मौसम का बदलना कहते हैं। और इस बदलाव को पृथ्वी के भीतर या बाहर यानी वायुमण्डल की हलचल के कारण समझते आए हैं। मौसम के बदलने को हमने प्रकृति की देन समझा और अपने मुताबिक उसे बदलने की कोशिश नहीं की बल्कि उन बदलावों से अनकूलन कर लिया और अपने जीवनयापन के प्रबन्ध उसी के मुताबिक हमने करना सीख लिया।
जल परियोजनाओं के लिये दिल्ली को पैसा कौन देगा
Posted on 26 Mar, 2015 03:55 PMविश्व जल दिवस पर विशेष
यमुना की मौजूदा हालत बताने की अब कोई जरूरत नहीं। पिछले 30 साल से खूब बताया जा रहा है और यह नदी दिन प्रतिदिन बदहाल हो रही है। आज कहने की नई बात यह है कि 1376 कि.मी. लम्बी देश की इस प्रमुख नदी की जब-जब चिन्ता हुई वह तभी हुई जब दिल्ली को पानी की और जरूरत पड़ी।
निष्कर्ष यह है कि यमुना की चिन्ता उसके उद्गम स्थल बन्दरपूँछ से लेकर सिर्फ 400 कि.मी. दूर तक यानि दिल्ली तक ही की गई। तरह-तरह के बहाने बनाकर दिल्ली में पानी की जरूरत बताकर यमुना को पूरा पीकर दिल्ली में ही खत्म कर दिया गया।
स्कूलों में जल का पाठ्यक्रम अलग से जोड़ने की जरूरत
Posted on 04 Sep, 2015 02:02 PMविश्व साक्षरता दिवस 08 सितम्बर 2015 पर विशेष
ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में नई-नई चुनौतियाँ खड़ी हो रही हैं। कुछ ऐसी चुनौतियाँ जिनका समाधान हमें पारम्परिक ज्ञान से मिलने में दिक्कत आ रही है। ऐसी ही एक समस्या या संकट जल की उपलब्धता का है। वैसे ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में कम-से-कम दो हजार साल का ज्ञात इतिहास हमारे पास है। दृश्य और लौकिक जगत में अपने काम की लगभग हर बात के पता होने का हम दावा करते हैं। लेकिन जल से सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान का पर्याप्त पाठ्य हमें मिल नहीं रहा है।
जल प्रबन्धन पर पारम्परिक और आधुनिक प्रौद्योगिकी जरूर उपलब्ध है लेकिन पिछले दो दशकों में बढ़ा जल संकट और अगले दो दशकों में सामने खड़ी दिख रही भयावह हालत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सामने बिल्कुल नई तरह की चुनौती खड़ी कर दी है।
हालांकि जागरूक समाज का एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा जल संकट को लेकर पिछले एक दशक से वाटर लिटरेसी यानी जल शिक्षा या जल जागरुकता की मुहिम चलाता दिख जरूर रहा है लेकिन नतीजे के तौर पर देखें तो ऐसे आन्दोलन का कोई असर नजर नहीं आया।