सोपान जोशी

सोपान जोशी
पुतले हम माटी के
Posted on 08 Nov, 2012 04:38 PM
विज्ञान और शोध की दुनिया में हमारे इन मित्र जीवाणुओं के प्रति प्रीति और रुचि हाल ही में बढ़ी है। वो भी इसलिए कि एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होने लगा है। रोगाणु इन्हें सहने की ताकत बना लेते हैं और मजबूत हो जाते हैं। फिर और नए और मंहगे एंटीबायोटिक पर शोध होता है। इस शोध के दौरान वैज्ञानिकों को समझ आया कि शरीर में कुछ और भी जीवाणु हैं और इनसे हमारा संबंध धरती पर जीवन के उद्गम के समय से है। यह कहना ज्यादा सही होगा कि ये हमारे पुरखे ही हैं। आज हम मंगल ग्रह के भूगोल के करीबी चित्र देखते हैं, चांद पर पानी खोजते हैं और जीवन की तलाश में वॉएजर यान को सौरमंडल के बाहर भेजने की कूवत रखते हैं। लेकिन हमारे शरीर पर और उसके भीतर रहने वाले अरबों जीव-जीवाणुओं के बारे में हम बहुत कम ही जानते हैं, जबकि इनसे हमारा लेन-देन हर रोज, हर पल होता रहता है। विज्ञान इस आदि-अनंत संबंध का एक सूक्ष्म हिस्सा अब समझने लगा है। इस संबंध का स्वभाव होड़, प्रतिस्पर्धा कम सहयोग ज्यादा है। इस नई खोज से हमारी एक नई परिभाषा भी उभरती है। ‘मैं कौन हूं’ जैसे शाश्वत और आध्यात्मिक प्रश्न का भी कुछ उत्तर मिल सकता है! जीव शब्द से हम सब परिचित हैं। अणु से भी हम सब नहीं तो हममें से ज्यादातर परिचित हैं ही। पर जब ये दोनों शब्द जुड़ कर जीवाणु बनते हैं तो उनके बारे में हममें से मुट्ठी-भर लोग भी कुछ ज्यादा जानते नहीं। इन सूक्ष्म जीवाणुओं को समझना हमारे लिए अभी भी टेढ़ी खीर है।
कुछ लाख रसोइये चाहिए
Posted on 10 Jul, 2012 05:02 PM
सौंदर्य केवल लघु होने से नहीं आता। लघुता का पाठ पढ़ाने वाले हमारे पर्यावरण वाले भूल जाते हैं कि प्रकृति लघु नहीं, अति सूक्ष्म रचना भी करती है और विशालकाय जीव भी बनाती है। छोटे-बड़े का यह संबंध भुला देना मनुष्य जाति की आफत बन गई है। दुनिया के जाने-माने जीवविज्ञानी विक्टर स्मेटाचैक इस संबंध के रहस्य को और हमारी परंपराओं को ज्ञान और साधना से जोड़ते हैं। वे विज्ञान और अहिंसा, भोजन और भजन की एक नई परिभाषा, हमारे नए जमाने के लिए गढ़ते हुए एक आश्चर्यजनक मांग कर रहे हैं: कुछ लाख रसोइये ले आओ जरा!

जलवायु परिवर्तन ही प्राणी जगत पर आई प्रलय का कारण नहीं माना जा सकता। अलग-अलग महाद्वीप पर बड़े स्तनपायियों का मिटना समय में थोड़ा अलग है। जैसे आस्ट्रेलिया में ये पहले हुआ, अमेरिका में थोड़ा बाद में। चूंकि बहुत-सा पानी हिमनदों और हिमखंडों में जमा हुआ था इसलिए समुद्र में पानी का स्तर आज की तुलना में कोई 400 फुट नीचे था और महाद्वीपों के बीच कई संकरे जमीनी रास्ते थे जो आज डूब गए हैं। जैसे भारत से आस्ट्रेलिया तक के द्वीप एक दूसरे से जुड़े थे, भारत से लंका तक एक सेतु था।

कोई 15,000 साल पहले तक धरती पर बहुत बड़े स्तनपायी पशुओं की भरमार थी। इनके अवशेषों से पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर शाकाहारी थे और आकार में आज के पशुओं से बहुत बड़े थे। उत्तरी अमेरिका और यूरोप-एशिया के उत्तर में सूंड वाले चार प्रकार के भीमकाय जानवर थे, इतने बड़े कि उनके आगे आज के हाथी बौने ही लगेंगे। वैज्ञानिकों ने इनको मैमथ और मास्टोडोन जैसे नाम दिए हैं। फिर घने बाल वाले गैंडे थे, जो आज के गैंडों से बहुत बड़े थे। ऐसे विशाल ऊंट थे जो अमेरिका में विचरते थे और साईबेरिया के रास्ते अभी एशिया तक नहीं पहुंचे थे। आज के हिरणों, भैंसों और घोड़ों से कहीं बड़े हिरण, भैंसे और घोड़े पूरे उत्तरी गोलार्द्ध में घूमते पाए जाते थे, चीन और साईबेरिया से लेकर यूरोप और अमेरिका तक। कुछ बड़े मांसाहारी प्राणी भी थे।
धनतंत्र का ईंधन: डीजल
Posted on 10 Mar, 2012 12:30 PM

अगर सरकार गरीब किसानों का सोचती तो उसे उन जलस्रोतों के बारे में भी सोचना पड़ता, जिन्हें सरकार की भागीदारी से बर्

रेत में नीर बहाने वाले
Posted on 05 Jan, 2012 06:43 PM

फरहाद कॉन्ट्रैक्टर


पानी के सामाजिक काम में सबसे जरूरी है लोगों का अपनी परंपराओं में विश्वास लौटाना। उन्हें याद दिलाना कि उनके पूर्वज एक गौरवशाली परंपरा छोड़ गए हैं, जल संचय की जो थोड़ी सामाजिकता से फिर लौट आए हैं। यहां छोटे-छोटे तालाबों का प्रचलन रहा है जिन्हें नाड़ी कहा जाता है। नाड़ियों का जीर्णोद्धार भी गांव के लोगों ने शुरु कर दिया है। ऐसे प्रयास करने के लिए धीरज और सहृदयता के साथ ही सबसे जरूरी होता है समाज के संबल का लौटना

यह संस्थाओं का जमाना है। सबसे बड़ी संस्था है सरकार। उससे बाहर जो हो वे गैरसरकारी कहलाती है। असरकारी दोनों कितनी होती हैं इसका जवाब देने की जरूरत नहीं है। जगह-जगह बोर्ड और शिलान्यास दिखते है बड़े-बड़े सामाजिक कामों के। पर काम थोड़ा कम ही दिखता है। कई पर सरकारी पदाधिकारियों के नाम होते हैं और कई पर गैरसरकारी संस्थाओं के। फरहाद कॉन्ट्रैक्टर ऐसे बोर्ड को पटिया कहते हैं। एक छोटी-मोटी संस्था उनकी भी है अहमदाबाद में, समभाव नाम से, जिसमें वे काम करते हैं। पिछले कुछ सालों में उन्होंने एक और संस्था के लिए काम करने की कोशिश की है। इस संस्था का कोई पटिया लगा नहीं मिलता पर है यह सबसे पुरानी इतिहास से भी पुरानी है। यह संस्था है समाज।
जल, थल और मल
Posted on 08 Sep, 2011 03:35 PM

आज तो केवल एक तिहाई आबादी के पास ही शौचालय की सुविधा है। इनमें से जितना मैला पानी गटर में जाता है, उसे साफ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते हैं। जितना बड़ा शहर, उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही ज्यादा दूषित नदियां।

अक्सर व्यंग में कहा जाता है और शायद आपने पढ़ा भी हो कि हमारे देश में आज संडास से ज्यादा मोबाइल फोन हैं। अगर यहां हर व्यक्ति के पास मल त्यागने के लिए संडास हो तो कैसा रहे? लाखों लोग शहर और कस्बों में शौच की जगह तलाशते हैं और मल के साथ उन्हें अपनी गरिमा भी त्यागनी पड़ती है। महिलाएं जो कठिनाई झेलती हैं उसे बतलाना बहुत ही कठिन है। शर्मसार वो भी होते हैं, जिन्हें दूसरों को खुले में शौच जाते हुए देखना पड़ता है, तो कितना अच्छा हो कि हर किसी को एक संडास मिल जाए और ऐसा करने के लिए कई लोगों ने भरसक कोशिश की भी है। जैसे गुजरात में ईश्वरभाई पटेल का बनाया सफाई विद्यालय और बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ शौचालय।
बैरी हुए बदरवा
Posted on 07 Sep, 2011 01:10 PM

जब बुनियादी आंकड़े भी न हों तो विज्ञान भला किस आधार पर पूर्वानुमान लगाए। मॉनसून पर निर्भरता को

चौमासा के बारहमासी फल
Posted on 06 Sep, 2011 09:38 AM

हमारे पंचांग का सबसे अनूठा समय है चौमासा। कुल जितना पानी बरसता है हमारे यहां, उसका 70-90 प्रतिशत चौमासे में ही गिर जाता है। जिस देश में ज्यादातर लोग जमीन जोतते हैं, उसमें चौमासे की उपज से ही साल-भर का काम चलता है। केवल किसानों का ही नहीं, कारीगरों और व्यापारियों का और उनसे वसूले कर पर चलने वाले राजाओं का, राज्यों का भी।

बीत चला है अब चौमासा। आते समय उसकी चिंता नहीं की जिनने, वे उसके बीतने पर क्या सोच पाएंगे? फिर भी इसे विलंब न मानें। चौमासा तो फिर आएगा। तो आने वाले चौमासे की चिंता अब जरा आठ माह पहले ही कर लें। इसी पर टिका है हमारे पूरे समाज का, पूरे देश का भविष्य। जमीन और बादल का यह संबंध हमारे नए लोगों ने, नए योजनाकारों ने नहीं समझा है। पर इस संबंध को समझे बिना हमारा भविष्य, हमारी जमीन, हमारा आकाश निरापद नहीं हो पाएगा और जब आपदाएं बरसेंगी तो आज की नई अर्थ व्यवस्थाओं के रंग-बिरंगे छाते हमें बचा नहीं पाएंगे। भागवत पुराण हमें बतलाता है: भगवान विष्णु राजा बलि को दिए वचन का पालन करते हुए चार महीने के लिए सुतल में उनके द्वार पर चले जाते हैं।
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