शेखर

शेखर
कहीं सूखा कहीं सैलाब, वाह रे आब
Posted on 22 Sep, 2011 09:55 AM
देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो साफ पेयजल से महरूम हैं कहीं सूखे की वजह से भुखमरी की नौबत है तो कहीं सैलाब से कोहराम मचा है। पानी की कमी नहीं है लेकिन खराब जल प्रबंधन की वजह से मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। सरकार हवाई योजनाएं बनाकर चुप बैठी है। निरंतर बढ़ते जलसंकट की पड़ताल कर रहे हैं शेखर।

जल-दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।

क्या धरती पर पानी के बिना जिंदगानी संभव है? अगर नहीं, तो पानी की इतनी बड़ी बर्बादी क्यों हो रही है। भारत में जलसंकट लगातार दस्तक दे रहा है और सरकार की तंद्रा टूट नहीं रही है। भारत में बारिश का अस्सी फीसद पानी बर्बाद हो जाता है। आलम यह है कि कुछ इलाके तो सैलाब से घिरे रहते हैं और कुछ सूखे से। जनजीवन की हानि दोनों ही स्थितियों में होती है। ऐसे में यह सवाल लगातार उठ रहा है कि देश के जल प्रबंधन को लेकर क्या और कैसे किया जाए। फिर देश के कई हिस्सों में सूखे ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। और कई इलाके बाढ़ से तबाह हैं। कई इलाके ऐसे हैं जहां कम बारिश हुई है। इस वजह से वहां खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है। 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद भी कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए काफी अहम है।
लक्ष्य से चूकता देश
Posted on 30 May, 2011 11:23 AM
ग्यारह साल पहले यानी 2000 में सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तय किए गए तो पूरी दुनिया ने इसका स्वागत किया। कहा गया कि बुनियादी समस्याओं के समाधान की राह में अहम कदम उठा लिया गया है। तकरीबन डेढ़ सौ देशों की सहभागिता वाले इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दुनिया के स्तर पर काफी पैसे भी जुटाए गए। तय हुआ कि ये आठ लक्ष्य 2015 तक पूरे कर लिए जाएंगे। अब महज चार साल ही बचे हैं। ऐसे में इन लक्ष्यों को पाने को लेकर संदेह गहराता जा रहा है। न लक्ष्यों को पाने की दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं होने के लिए विकासशील देशों के रवैए के साथ-साथ विकसित देशों की वादाखिलाफी को भी जिम्मेदार माना जा रहा है।
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