सच्चिदानंद सिन्हा

सच्चिदानंद सिन्हा
सभ्यता का संकट और विकल्प
Posted on 26 Apr, 2013 11:22 AM

एक बुनियादी बात ध्यान में रखना जरूरी है। शोषणमुक्त समाज में पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने की क्षमता गैरबराबर समाज से अधिक होती है, क्योंकि गैरबराबरी से ही दिखावे के लिए बेजरूरत तामझाम पर खर्च जरूरी होता है, और बाजार आश्रित पूंजीवादी समाज में तो बेजरूरी वस्तुओं के उत्पादन व उपभोग की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि इसे नियंत्रित करने से पूंजीवादी व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है। इससे यह तो जरूर कहा जा सकता है कि प्रकृति से तालमेल बिठा कर चलने वाली कोई भी व्यवस्था समता के मूल्यों पर ही आधारित हो सकती है।

पूंजीवादी तकनीक की मदद से दुनिया को स्वर्ग बनाने की जो कल्पना मार्क्सवाद ने की थी, वह व्यस्त हो गई है। पर्यावरण का संकट बुनियादी संकट है, लेकिन विकसित देशों को धरती गरम होने से बर्फ पिघलने से उत्तरी गोलार्ध में खनिजों के नए भंडारों के दोहन और व्यापार की संभावना दिखने लगी है। भारत जैसे देशों को विकास की एक अलग राह खोजना होगा जो प्रकृति के साथ सामंजस्य, गांव, खेती, छोटी इकाई और समानता व सहयोग पर आधारित हो। इसके लिए राष्ट्र-राज्य, फौज और बड़े उद्योगों के गठजोड़ को तोड़ना होगा। क्यूबा जैसे प्रयोगों से भी हम सीख सकते हैं। वैकल्पिक विकास के मॉडल की बात करना आज उसी तरह अर्थहीन है जैसे कभी यूटोपिया की बात करना समाजवादी आंदोलन के प्रारंभिक काल में था। कोई भी व्यवस्था सामने की हकीक़त के संदर्भ में ही बनती है, बनी-बनाई कल्पना के अनुरूप नहीं। ऐसे किसी भी मनचाहे ब्लूप्रिंट को लागू करने का प्रयास या तो धर्मांधता को जन्म देता है या तानाशाही को। आज चूंकि पर्यावरण का संकट विविध रूपों में हमारे अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्व का बन गया है, इसलिए हमें समाज निर्माण की वैसी दिशा अपनानी होगी जो पर्यावरण के लिए कम से कम नुक़सानदेह हो।
सभ्यता का संकट और गांधी का विकल्प
Posted on 04 Oct, 2011 09:51 AM

वर्तमान औद्यागिक सभ्यता हर स्तर पर मजदूरों के शोषण से लेकर पर्यावरण के विरुद्ध अनियंत्रित आक्र

×