एस. एन. गुप्ता

एस. एन. गुप्ता
नदियों का आंगन सूना है-
Posted on 22 Jul, 2014 11:43 AM
रामगंगाहिमधर के अश्रु पिघल रहे
सरि तीरे पीड़ा पसरी है
जहां भोर सुहानी खिलती थी
वहां गहन उदासी बिखरी है

पूजा की थाली में सज कर
जल जीवन है...
Posted on 29 Apr, 2014 08:19 AM
जल जीवन है इस धरती का,
जल बिन है सब सूना,
जल बिन फट जाता है,
अपनी धरती मां का सीना,
जल बिन तड़पें नभचर ,
जलचर, थलचर, सारे प्राणी,
जल है अमृत, जल है शक्ति,
बिन जल कृषि सुखानी,
जल बिन ना कल चले,
चले ना धर्म, ना कोई ज्ञान ,
जल नहीं है अनंत काल तक,
जल का रख लो मान !

टिहरी, भाग -2
Posted on 15 Apr, 2014 03:41 PM
प्राकृतिक सौंदर्य को देखता
विभोर हो रहा हूँ
नव विहान के साथ
जल सतह पर
तैरता कोहरा ढॅंक लेता है
अपने आँचल में
मध्धम होती
निःशेष छवि काल की
कोहरा छंटने पर
दिखती हैं स्पष्ट रेखाएं
आधुनिक अभियांत्रिकी
कौशल की
मानव की अदम्य इच्छाशक्ति
आशा-विश्वास
अद्भुत-अकम्प संकल्प का
जीवंत उदाहरण 'टिहरी बाँध'
टिहरी
Posted on 20 Feb, 2014 08:49 AM
खोज रहे हैं आज हम
अनंत में गुम हुई
मानवता के अवशेष
हड़प्पा या मोहनजोदड़ो में
नहीं पहुंचे कहीं
भटकते ही रह गए
अनुमानों के बियाबान
मरुथल में
आधुनिक सभ्यता आकांक्षा
फिर लील गई
एक गौरवपूर्ण इतिहास को
जादुई भविष्य के लिए
ध्वंस हो गया है
स्वर्णिम अतीत टिहरी का
साथ ही विह्वल 'आज'
वो मार्ग और भवन भी
ये नदियां
Posted on 03 Jan, 2014 03:12 PM
ये नदियां
बहती जाती हैं
दिन रात अनवरत
अनहद राग गूंजता
रहता है फिर भी
दिखती हैं शांत ...
चलती रहती हैं
अबला नारी सी
लाज समेटे
अपने ही में मग्न
निर्द्वन्द्व निर्विकार
कोई रोके तो
लजाती सी
चुपचाप मार्ग बदल
निकल जाती हैं
या फिर शांत हो
रुक जाती हैं
प्रतीक्षा करती हैं
और गहन हो
अबला से सबला
मेरे शहर की नदी
Posted on 09 Dec, 2013 03:20 PM
मेरे शहर से होकर
जाती है एक नदी
कभी बहती है
कभी रूकती है
रोती ही रहती है
अपनी दुर्दशा पर
गंदे नाले जो गिरते हैं
इस नदी में उन्होंने
नदी को ही अपने जैसा
बना लिया है
मेरा शहर जो कि
दिल है मेरे देश का
देश को जीवंत करता है
उसकी नदी का
जीवन कहीं खो गया है
जिस सूर्य सुता का जल
सत्ता के अभिनव दुर्ग के
अबला नदी
Posted on 29 Nov, 2013 09:27 AM
पर्वतों उपत्यकाओं में
पली बढ़ी हूँ मैं
हिमनदों की बहुत
लाडली हूँ मैं
मुझसे ये धरा खिले
जिसे गगन लखे
ज्योतिर्मय नव विहान
की छटा दिखे
स्वयं गरल समेट कर
सुधा प्रवाहती
मैं क्या कहूं
इस मही का प्राण हूँ मैं ही
कलकल ध्वनि लिए
शाश्वत गान गा रही
पग बंधे हैं किंतु इच्छा
मुक्ति दान की
लक्ष्य था अनंत किंतु
हे सलिले
Posted on 25 Oct, 2013 03:26 PM
हे सलिले !
कहाँ सवेग
बही जाती हो
रुको तनिक
क्षण भर तो सोचो
और कहाँ तक
प्रवाहित होंगी

हे तरंगिणी !
नव जीवन
सांसों में
स्पन्दन
पुण्य अमर
अक्षय फल
तुम से ही है

हे सद्नीरे !
क्यों हो विवश
विष वाहक बन
स्वयं घुटन ढो
पग पग पर
मौन उदास
छली जाती हो

हे सरिते !
एक नदी
Posted on 10 Oct, 2013 10:15 AM
एक नदी बाल्यावस्था
लांघ अल्हड़ यौवन का
स्पर्श मात्र ही कर पाई थी
कि बाँध दी गई
उन्मुक्तता उसकी
यह समझाकर कि
इस प्रकार कल्याण
कर पाएगी वो
जन जीवन का
नदी सहर्ष स्वीकार
करती है इस बंधन को
बिना विचारे आगत क्या है
किन्तु यह क्या
उसके संगी साथी
झरने, प्रपात,नन्ही धाराएं
सभी तो लुप्त हो गए
एक नदी की व्यथा
Posted on 21 Sep, 2013 11:53 AM
मुझ पर है सबका अधिकार
मैं किस पर अधिकार दिखाऊँ
अनचाहे अवसाद में डूबी
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ
ताप मिटाए पाप हटाए
सबको शीतलता दे जाऊँ
मेरा ताप कौन हरेगा
किससे मैं यह आस लगाऊं
जग की क्षुधा मिटाती आई
कैसे अपनी प्यास बुझाऊं
इतने गरल पिलाये मुझको
अब मैं सुधा कहाँ से लाऊं
अनगिन पातक आँचल धोये
अपना आँचल कैसे पाऊँ
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