अनुपम मिश्र
संवेदनशून्य होता हमारा समाज
Posted on 04 Feb, 2011 04:51 PMपर्यावरण दिवस पर ढेर सारे लेख लिखे जाते हैं, प्रदर्शनियाँ लगती हैं, भाषण होते हैं, कहाँ क्या-क्या बिग़ड़ा है, इसकी सूची भी बनती है। लेकिन फिर भी बाकी सालभर इसकी सूची को कम करने की तरफ शायद ही ध्यान जाएगा। जाने-अनजाने सूची को ब़ढ़ाने का काम होता रहता है। जब से पर्यावरण दिवस मन रहा है यानी 1972 से आज तक देश के पर्यावरण को सुधारने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह चौतरफा दिन-दूना रात-चौगुना ही बिग़ड़ा है
दिमाग साफ तो नदी भी साफ
Posted on 01 Feb, 2011 01:28 PMमुझे लगता है कि असली देशप्रेम अपने घर, अपने मोहल्ले और शहर भूगोल को समझने से शुरू होता है। हम जिस शहर में रहते हैं, उसमें कौन-सा पहाड़ या कौन-सी छोटी या बड़ी नदी है, कितने तालाब हैं? हमारे घर का पानी कहाँ से, कितनी दूर से आता है? क्या यह किसी और का हिस्सा छीनकर हमको दिया जा रहा है, क्या हमने अपने हिस्से का पानी पिछले दौर में खो दिया है, बरबाद हो जाने दिया है- ये सब प्रश्न हमारे मन में आज नहीं तो कल जरूर आने चाहिए। हम लोग अपने स्कूलों में अक्सर किताबों में देशप्रेम, संविधान, भूगोल जैसे विषय पढ़ते हैं। कुछ समझते हैं और कुछ-कुछ रटते भी हैं, क्योंकि हमें परीक्षा में इन बातों के बारे में कुछ लिखना ही होता है।
लेकिन, मुझे लगता है कि असली देशप्रेम अपने घर, अपने मोहल्ले और शहर भूगोल को समझने से शुरू होता है। हम जिस शहर में रहते हैं, उसमें कौन-सा पहाड़ या कौन-सी छोटी या बड़ी नदी है, कितने तालाब हैं? हमारे घर का पानी कहाँ से, कितनी दूर से आता है? क्या यह किसी और का हिस्सा छीनकर हमको दिया जा रहा है, क्या हमने अपने हिस्से का पानी पिछले दौर में खो दिया है, बरबाद हो जाने दिया है- ये सब प्रश्न हमारे मन में आज नहीं तो कल जरूर आने चाहिए।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक, भुज से लेकर त्रिपुरा तक
बीज बचाइये, पौरुष बचेगा
Posted on 17 Jan, 2011 01:38 PM बीजों के भीमकाय सौदे को समझने के लिए हमें पहले बीज के रहस्य को समझना होगा। धरती कसिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा
Posted on 27 Aug, 2010 04:04 PM
आज हर बात की तरह पानी का राजनीति भी चल निकली है। पानी तरल है, इसलिए उसकी राजनीति भी जरूरत से ज्यादा बहने लगी है। देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच भी पानी को लेकर एक न एक लड़ाई हर जगह मिलेगी।
कटे डंठलों की नमी से जुड़ना
Posted on 13 Aug, 2010 09:41 AMजोबनेर में अंग्रेजी राज के समय ही कृषि की आधुनिक पढ़ाई की शुरूआत हो गई थी। वहां की रियासत के राजा ने, ठिकानेदार ने अपने एक महल को कृषि महाविद्यालय खोलने के लिए दान में दिया था। आजादी के बाद यहां आधुनिक कृषि शिक्षा का विस्तार हुआ। आज इस क्षेत्र से न जाने कितनी तरह के शोध होते हैं। पर किसान के इस कौशल की ओर हमारे नए कृषि पंडितों का अधिकारियों का, किसी का भी ध्यान नहीं जा पाया है।
पिछले साल इन्हीं दिनों की बात है। हम लोग राजस्थान के जोबनेर क्षेत्र से निकल रहे थे। सड़क के दोनों तरफ खेतों में गेहूं कट चुका था। अभी पूले खलियान में नहीं पहुंचे थे। सारा दृश्य वही तो था जो बैसाखी के आसपास गेहूं के खेतों से गुजरते हुए दिखता था।नहीं। सारा दृश्य वैसा नहीं था। यहां खेतों में कुछ नया-सा, कुछ अटपटा-सा दिख रहा था। और जगहों से कुछ ज्यादा व्यवस्थित, कुछ अलग, कुछ विचित्र सुंदरता लिए। हमारी गाड़ी थोड़ी तेज रफ्तार से भाग रही थी। फिर भी जोबनेर के इन खेतों की कोई एक अलग विशेषता हमारी आंखों को ब्रेक-सा लगा रही थी। यहां केवल गेहूं नहीं था। यहां तो कनक यानी सोना बिखरा हुआ था, चारों तरफ। इस सोने के भंडार का आकर्षण, खिंचाव इतना तेज था
एक नहीं, हर दिन पानी का
Posted on 27 Jul, 2010 09:24 AMसमाज में तीज-त्योहारों का अपना महत्व है। धर्म की तरह समाज के बाकी हिस्सों में भी गैर-सामाजिक व राजनीतिक हिस्सों में भी पिछले कुछ वर्षों से हम सब तरह-तरह के दिवस मनाने लगे हैं। इन दिवसों का अपना महत्व हो सकता है, लेकिन उनका वजन तभी बढ़ेगा, जब हम बाकी वर्षभर इन पर अमल करेंगे।जल दिवस उसी तरह का एक दिवस है। एक तो हम में से ज्यादातर लोगों को यह नहीं पता कि ऎसे दिवस कौन तय करता है। हम तो बस मनाने लग जाते हैं। आठ-दस घंटे में भाषण, उद्घाटन, समापन आदि करके शाम तक भूल जाते हैं। हमारे यहां वर्षा के लिए पूरे चार महीने रखे गए हैं। सबको मालूम है कि चौमासा वर्षा के स्वागत व सम्मान के लिए ही किसान समाज ने बनाया था, लेकिन उसके आने की तारीखें वर्षा लाने वाले नक्षत्रों के हिसाब से ही तय होती हैं। इसी तरह चार महीने के समापन की तिथियां भी बादल समेटने के नक्षत्रों से जोड़कर देखी गई हैं
धरती का बुखार
Posted on 26 Jun, 2010 12:19 PM इंग्लैंड के पास बेहद कठिन नाम ‘ऐयाफ्याटलायोकेकुल’ वाला जो ज्वालामुखी फटा है, उसकी कोई सरल जानकारी भी किसी के पास थी नहीं यह भी नहीं मालूम कि कितने दिनों तक यह लावा उगलेगा और धुआं निकलता रहेगा। बस उससे बड़ा नुकसान यह हुआ कि कोई आठ-दस दिनों तक पूरा यूरोप ठप्प रहा। वह उड़ नहीं पाया। उसे उड़ने की बहुत बड़ी आदत है। इसलिए उसके लिए यह बहुत बड़ी खबर बन गई। यह कहीं और हुआ होता तो शायद इतनी बड़ी खबर नहीं बनती।सभी को लगा कि गर्मी इस बार थोड़ा पहले आ गई है और कुछ ज्यादा ही तेजी से आई है। अखबार वाले बता रहे हैं कि कम से कम तापमान में पिछले बीस साल का रिकॉर्ड टूटा है तो चालीस साल का रिकॉर्ड ज्यादा से ज्यादा तापमान में टूटा है। इस तरह के आंकड़े हमारे सामने रोज आते रहे हैं और लोग अपने-अपने साधनों से, अपने-अपने तरीके से इस गर्मी को झेलने का रास्ता निकालते रहे हैं। लू से होने वाले नुकसान भी सामने आए हैं। गुजरात और राजस्थान में इस बार अनेक लोगों की मृत्यु हुई है।इससे पहले ठंड के मौसम में भी इसी तरह की बात सुनते रहे कि इस बार ठंड कुछ ज्यादा पड़ी है और देर तक पड़ी है। और उस मौसम में भी अभाव में किसी तरह जी रहे लोगों में से कुछ को अपनी जान देनी पड़ी थी। तब बेघरबार लोगों की चिंता नगरपालिकाओं को तो नहीं हुई पर देश की बड़ी अदालत ने जरूर इस बारे में न सिर्फ अपनी संवेदनाएं दिखाईं,
आज भी खरे हैं तालाब
Posted on 05 May, 2010 02:01 PM
अपनी पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” में श्री अनुपम जी ने समूचे भारत के तालाबों, जल-संचयन पद्धतियों, जल-प्रबन्धन, झीलों तथा पानी की अनेक भव्य परंपराओं की समझ, दर्शन और शोध को लिपिबद्ध किया है।