Posted on 21 May, 2011 09:47 AMपानी एक आवाज़ है: कभी विलम्बित, कभी द्रुरत कभी मध्य लय में बहती हुई कभी मौन में धड़कती हुई बहिर्ध्वनि के बिना
‘कामायनी’ की शिला की शीतल छाँह में बैठकर भीगे नयनों से सुनता है जिसे मनु मिट्टी की अनेक परतों के भीतर जड़ जिसे पीकर वृक्ष की सबसे ऊपर की फुनगी तक को कर देती है हरा-भरा।
Posted on 17 May, 2011 08:23 AM(जैसे कि मैं हरहमेशा रचना या देखना चाहता हूँ धरती, आसमान, हवा, आग के सुन्दर पोट्रेट)
कविता का पानी चीखते से ही मैं पानी का पोट्रेट बनाना चाहता हूँ कितनी कोशिश करता हूँ पर ला नहीं पाता वह तरलता, न प्यास बुझाने का वह गुन न वह कोमलता और न वह दुर्धर्ष स्वभाव
सोचता हूँ दिखे जहाँ पानी अपनी सम्पूर्ण रंगत के साथ
Posted on 16 May, 2011 09:22 AMपसरी चट्टानों पर कपड़े सूख रहे हैं नहान-स्नान में डूबे नर-नारी नदी को पवित्र कर रहे हैं अपने श्रमशील विचार से-व्यवहार से
खेत काटकर आयी औरतों ने अँजुरी भर-भर जल पिया और नदी को सदानीरा रहने का दिया असीस तदर्थ चूल्हों में कहीं रोटियाँ पक रही हैं कहीं बलक रहा है दाल-भात
Posted on 13 May, 2011 09:56 AMसुनते हैं उमर पचास तक रीवा में रहे थे तुम इस लम्बी अवधि में कितना गाया होगा तुमने तानसेन और पूरा रेवांचल तुम्हारे राग-रागनियों की खुशबू से रहा होगा सराबोर और उस समय कोई कलेजा काठ न हुआ होगा
जब तुम मल्हार गाते रहे होगे विंध्य को बरबस भिगोते रहे होंगे मेघ नाचते अघाते न होंगे मोर-मोरनी और यह विंध्या-भूमि हरीतिमा, फूल-फल से लदी रही होगी