स्वतंत्र मिश्र

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लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा
Posted on 08 Sep, 2014 11:55 AM

. गर्मी की तीव्रता से मनुष्यों और जानवरों का जीना मुहाल हो गया है। कुएं, तालाब और नदियों के जल स्तर में कमी आ रही है। ये संकट मनुष्य ने खुद पैदा किए हैं। बदल चुकी जीवन शैली की वजह से कृत्रिम तौर पर संकट पैदा हुआ है। दिल्ली में कभी 350 से ज्यादा तालाब हुआ करते थे लेकिन आज शायद तीन भी मुश्किल से मिलेंगे।

सच तो यह है कि यह संकट मौसम चक्र में आ रहे बदलावों के नतीजे हैं। गर्मी का मौसम चार महीने का होता था अब आठ महीने या नौ महीने गर्मी पड़ने लगी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ये बदलाव कृत्रिम तौर पर पैदा किए गए संकटों से हुए हैं। अन्यथा मौसम चक्र से चीजें चलती रहती तो संभव है कि कभी कोई बड़ा संकट नहीं पैदा होता।
लोगों का गुस्सा ‘बादल’ की तरह फटेगा
Posted on 06 Sep, 2014 10:57 AM
उत्तराखंड की आपदा के बारे में विमर्श करते हुए इसे ‘मानवीय भूल’ बता
तेजी से सूख रहे हैं कुएं
Posted on 04 Sep, 2014 01:43 PM
हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं जिसने अपनी नदियां खो दी हैं और परेशान क
आर्सेनिक से बचाव के लिए जरूरी है कुएँ का पानी
Posted on 10 Aug, 2013 03:19 PM
आर्सेनिक ग्रसित इलाके बलिया और भोजपुर में वैज्ञानिक पीने योग्य पानी के लिए पारंपरिक कुओं की ओर लौटने की सलाह दे रहे हैं। गैर-सरकारी संगठन ‘इनर वॉयस फ़ाउंडेशन’ और 95 वर्षीय धनिकराम वर्मा की पहल से कुओं को साफ किया जा रहा है। बलिया नगरपालिका ने भी शहर के 25 कुओं का जीर्णोंद्धार करने की घोषणा की है। उत्तर प्रदेश का बलिया और बिहार का भोजपुर जिला आर्सेनिक की चपेट में है। आर्सेनिक युक्त पानी पीने से यहां के लोग पहले मेलानोसिस (शरीर के विभिन्न अंगों पर काले धब्बे पड़ना), फिर केटोसिस (काले धब्बों का गांठ में तब्दील होना और उसमें मवाद भर जाना) और अंततः कैंसर से पीड़ित होकर मरने को विवश हैं। कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कूल ऑफ एन्वायरमेंटल स्टडीज के निदेशक प्रोफेसर दीपांकर चक्रवर्ती ने ‘शुक्रवार’ को बताया, ‘बलिया और भोजपुर का शाहपुर इलाक़ा एशिया के सर्वाधिक आर्सेनिक ग्रस्त इलाकों में से एक है।’ पिछले दो दशकों के दौरान इस इलाके में कम-से-कम 2000 लोगों की मौत आर्सेनिक युक्त पानी पीने से हो चुकी है।

दरअसल 1990 के दशक में केंद्र और राज्य सरकारों ने पूरे देश में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पीने योग्य पानी पहुंचाने के लिए हैंडपंप (नलकूप) लगवाने शुरू कर दिए। डॉक्टरों ने भी अपने मरीज़ों को कुएँ का पानी नहीं पीने और साफ पानी के लिए नलकूप का पानी इस्तेमाल करने के लिए कहना शुरू कर दिया।
इंडोसल्फान नहीं, खेती को उद्योग बनने से बचाया जाए
Posted on 18 May, 2011 12:58 PM

भूजल का बेतरबीत तरीके से दोहन करके, अत्यधिक रासायनिक उवर्रक और रासायनिक कीटनाशकों को इस्तेमाल म

तबाह हुई सोयाबीन की खेती, नहीं मिला है मुआवजा
Posted on 20 Oct, 2014 08:32 AM
देवास के किसान फसल के बर्बाद होने के बाद मुआवजा मिलने का बेसब्री से
तालाब संस्कृति ने देवास को ‘विदर्भ’ बनने से बचाया
Posted on 08 Oct, 2014 11:35 AM
मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के देवास को कभी ‘डार्क जोन (जहां भूजल खत्म हो चुका हो)’ घोषित कर दिया गया था और आलम यह था कि वहां पीने का पानी रेलगाड़ियों से लाया जाने लगा था। यह सिलसिला लगभग डेढ़ दशक तक चला लेकिन 2005 के बाद से यहां तालाब की परंपरा को जिंदा करने का अभियान शुरू किया गया।

2005 में यहां आयुक्त के तौर पर उमाकांत उमराव की तैनाती हुई और उन्होंने देखा कि देवास शहर के लोगों की प्यास बुझाने के लिए रेलगाड़ियों से पानी के टैंकर लाए जा रहे हैं। गांवों में भी ट्यूबवेल के जरिए खेतों को सींचने के लिए 350-400 फीट खुदाई की जा रही है और तब भी पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है।
<i>Rewa Sagar by Waterkeeper India</i>
बाढ़ प्रकृति और जीवन का हिस्सा है : अनुपम मिश्र
Posted on 26 Sep, 2014 04:05 PM
पर्यावरणविद् व लेखक अनुपम मिश्र से स्वतंत्र मिश्र की बातचीत पर आधारित साक्षात्कार

. बाढ़-सुखाड़ तो अब उद्योग के रूप में पहचाना जा रहा है। क्या कारण है कि इस पर नियंत्रण नहीं किया जा सका है?
यह एक कारण हो सकता है। कुछ लोगों को बाढ़ का इंतजार रहता है। यह बुरी बात है कि जिस कारण से हजारों लोगों की जान जाती है, उसी का इंतजार कुछ नेताओं में से और कुछ अधिकारियों में से लोगों को होता है। इसमें से कुछ समाजसेवी भी हो सकते हैं। उनको अपने एक-दो मकान बनाने के लिए लाखों के घर उजड़ जाने का इंतजार रहता है। यह बहुत शर्म की बात है।

आप जिलाधिकारियों एवं राज्य के अधिकारियों को बाढ़ की पूर्व तैयारी के बाबत कुछ सलाह देना चाहते हैं? वे सलाह क्या हैं?
यह बहुत ही अनौपचारिक है। मेरे मन में यह है कि इन लोगों से कोई संस्था बात कर पाती। अप्रैल, मई, जून में ऐसी योजना बना पाते ताकि खाद्य सामग्री को सस्ते वाहनों से पहुंचाया जा सकता। उनके लिए हेलिकॉप्टर जैसे मंहगे वाहन इस्तेमाल नहीं किए जाते। पिछले साल बिहार में दो करोड़ की पूरी और आलू 52 करोड़ रुपए खर्च करके हेलिकॉप्टर से लोगों तक पहुंचाए गए थे। इस तरह की बेवकूफी का क्या मतलब है? क्या आप हजार नाविक इस काम के लिए तैयार नहीं कर सकते हैं?
Anupam Mishra
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