नरेश सक्सेना

नरेश सक्सेना
यात्रा
Posted on 04 Oct, 2013 04:11 PM
नदी के स्रोत पर मछलियाँ नहीं होतीं
शंख-सीपी मूँगा-मोती कुछ नहीं होता नदी के स्रोत पर
गंध तक नहीं होती
सिर्फ होती है एक ताकत खींचती हुई नीचे
जो शिलाओं पर छलाँगें लगाने पर विवश करती है।

सब कुछ देती है यात्रा
लेकिन जो देते हैं धूप-दीप और

जय-जयकार देते हैं
वही मैल और कालिख से भर देते हैं

धुआँ-धुआँ होती है नदी
नावें
Posted on 04 Oct, 2013 04:09 PM
नावों ने खिलाए हैं फूल मटमैले
क्या उन्हें याद है कि वे कभी पेड़ बनकर उगी थीं

नावें पार उतारती हैं
खुद नहीं उतरतीं पार
नावें धार के बीचोंबीच रहना चाहती हैं

तैरने ने दे उस उथलेपन को समझती हैं ठीक-ठाक
लेकिन तैरने लायक गहराई से ज्यादा के बारे में
कुछ भी नहीं जानतीं नावें

बाढ़ उतरने के बाद वे अकसर मिलती हैं
छतों या पेड़ों पर चढ़ी हुई
नदी
Posted on 04 Oct, 2013 04:08 PM
हमने घी और दूध से भरी नदियों का स्मरण किया
और उन्हें मल और मूत्र से भर दिया
नदी की सतह पर अब सिर्फ कालिख और तेल है
सूरज तक नहीं देख पाता उसमें अपना चेहरा
मछलियों का दम कब का घुट चुका
मर चुकी है नदी
माझी तुम किस खुशी में
ट्रांजिस्टर बजा रहे हो इस लाश के किनारे
गा सको तो गाओ हइया ओ हइया वाला गीत
याद आएँ दृश्य
बचपन में देखी हुई फिल्म के
पार
Posted on 04 Oct, 2013 04:06 PM
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नदी होती

नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना

नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है

कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।

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