डॉ. राजेश कपूर

डॉ. राजेश कपूर
जलनीति का मकड़जाल
Posted on 29 Dec, 2012 11:38 AM
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद ने अंततः ‘राष्ट्रीय जल नीति-2012’ को स्वीकार कर लिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यक्षता में हुई राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की छठी बैठक में राष्ट्रीय जल नीति का रास्ता साफ हो गया। हालांकि भारत सरकार का तर्क यह है कि यह जल नीति पानी की समस्याओं से निपटने के लिए सरकार के निचले स्तरों पर जरूरी अधिकार देने की पक्षधर है। पर दरअसल सरकारों की मंशा पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन को कंपनियों के हाथ में सौंपने की है। आम आदमी पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए भी तरस जाएगा, बता रहे हैं डॉ. राजेश कपूर।

प्रस्ताव की धारा 7.4 में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के अलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है। ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ेगी। ये सारे कानून आज लागू नहीं हैं तो भी पानी के लिए कितना मारा-मारी होती है। ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर क्या होगा? जो निर्धन पानी नहीं ख़रीद सकेंगे उनका क्या होगा? किसान खेती कैसे करेंगे? नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है।

भारत सरकार के विचार की दिशा, कार्य और चरित्र को समझने के लिए “राष्ट्रीय जल नीति-2012” एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इस दस्तावेज़ से स्पष्ट रूप से समझ आ जाता है कि सरकार देश के नहीं, केवल मेगा कंपनियों और विदेशी निगमों के हित में कार्य कर रही है। देश की संपदा की असीमित लूट बड़ी क्रूरता से चल रही है। इस नीति के लागू होने के बाद आम आदमी पानी जैसी मूलभूत ज़रूरत के लिए तरस जाएगा। खेती तो क्या पीने को पानी दुर्लभ हो जाएगा।

29 फरवरी तक इस नीति पर सुझाव मांगे गए थे। शायद ही किसी को इसके बारे में पता चला हो। उद्देश्य भी यही रहा होगा कि पता न चले और औपचारिकता पूरी हो जाए। अब जल आयोग इसे लागू करने को स्वतंत्र है और शायद लागू कर भी चुका है। इस नीति के लागू होने से पैदा भयावह स्थिति का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। विश्व में जिन देशों में जल के निजीकरण की यह नीति लागू हुई है, उसके कई उदहारण उपलब्ध हैं।
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