जीवेम शरद: शतम् गाने वाला भारत लंबे अर्से तक ज्ञान और पूंजी दोनों का सिरमौर रहा। वक्त बीतने के साथ यह विकासशील देशों की श्रेणी में निचली पायदान पर खड़ा नजर आया। एक बार फिर बीतते वक्त के साथ भारत पूंजी के पैमाने पर मजबूत हो उभर रहा है। इसके साथ ही पर्यावरण को लेकर इसकी चिंताओं को भी तवज्जो मिलनी शुरू हो गई है। दिसंबर में कोपेनहेगेन में होने वाली पर्यावरण के मसलों से जुड़ी वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस के सुर तय करने में भारत अहम भूमिका निभाएगा। दुनिया में चल रही पर्यावरण की राजनीति और हवा-पानी-आकाश से जुड़ी मानवीय चिंताओं का विश्लेषण कर रहे हैं आलोक सिंह भदौरिया :
हवा में चारों तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग, क्लाइमेट चेंज, क्योटो प्रोटोकॉल, कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस जैसे शब्द तैर रहे हैं। विकसित-विकासशील देशों के मतभेद गूंज रहे हैं, क्लीन-ग्रीन तकनीक की बातें हो रही हैं। इसके मूल में एक ही चिंता है, अपनी धरती बीमार हो रही है, उसका टेंपरेचर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। चूंकि इसका असर धरती पर रहने वालों, खासकर इंसानों पर हो रहा है इसलिए चारों तरफ हायतौबा कुछ ज्यादा है। मगर शोर ज्यादा हो रहा है और अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को लेकर गंभीर चिंतन कम।
धरती की इस बीमारी की जड़ में है यूरोप में 1750 के बाद आई औद्योगिक क्रांति की आंधी। उस समय धरती के वातावरण के 10 लाखवें हिस्से में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 280 थी जो 1994 तक बढ़कर 358 तक हो गई थी। 1980 के दशक के आखिर में इसे लेकर चिंता बढ़ी। असल में कार्बन डाई ऑक्साइड ऐसी गैस है जो धरती के वातावरण में मौजूद रहकर सूरज से हम तक आने वाली गर्मी की कुछ मात्रा को सोखकर धरती को जीवनदायनी गर्मी देती है। वातावरण में मौजूद गैसों द्वारा गर्मी सोख कर धरती का ताप बढ़ाना ग्रीनहाउस इफेक्ट कहलाता है। कार्बन डाई ऑक्साइड प्रमुख ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) है बाकी दूसरी गैसें हैं मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन। लेकिन इनकी अधिकता से धरती का तापमान हद से ज्यादा बढ़ने लगा है यही ग्लोबल वॉर्मिंग है।
1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरो में एक पृथ्वी सम्मेलन हुआ और धरती को बचाने की कवायद तेजी से शुरू हुई। इसमें मौसम में आने वाले बदलाव पर एक यूएन फ्रेमवर्क बनाया गया। इसके तहत औद्योगिक देशों को दुनिया के मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार बताते हुए जीएचजी के उत्सर्जन पर रोक लगाने की बात कही गई। विकासशील देशों से कहा गया कि वे विकास को प्राथमिकता दें पर धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाते रहें। इसमें अमीर देशों से उनकी सहायता करने को कहा गया।
इसके बाद आई 1997 की क्योटो कॉन्फ्रेंस। जापान में आयोजित इस कॉन्फ्रेंस में एक प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों के लिए जीएचजी उत्सर्जन के लिए 1990 के आधार पर मानक तय किए गए। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर यह पाबंदी बाध्यकारी नहीं है। इस प्रोटोकॉल को लागू करने का पहला चरण 2008 से 2012 रखा गया था। रूस इसे मान्यता देने वाला पहला देश था और फरवरी 2009 तक 183 देश इस पर अपनी सहमति जता चुके हैं। ये वे देश हैं जिनसे कुल जीएचजी का 55 फीसदी निकलता है। अमेरिका ने इसे अभी तक मान्यता नहीं दी है।
ऑस्ट्रेलिया ने भी इसे हाल ही में मान्यता दी है। डेनमार्क के कोपेनहेगन में 7 दिसंबर से चालू होने वाली युनाइटेड नेशंस क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में अब तक के हालात की समीक्षा के साथ आगे की कार्रवाई पर विचार होगा। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि 9 अक्टूबर को बैंकॉक में संपन्न हुई क्लाइमेट चेंज टॉक में अमेरिका ने साफ तौर पर क्योटो प्रोटोकॉल को खारिज कर दिया और एक नए समझौते की मांग की। यूरोपियन यूनियन समेत तमाम औद्योगिक देशों ने अमेरिका की मांग की वकालत की है। उनका कहना है कि बिना अमेरिका को शामिल किए कोई भी समझौता सफल होना मुश्किल होगा। इसके साथ ही इन देशों का तर्क है कि प्रोटोकॉल के तहत विकासशील देशों के लिए भी लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए। इसी वजह से कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस के शुरू होने से पहले ही उसकी सफलता को लेकर शंकाएं उठने लगी हैं।
अमीर-गरीब, उत्तर-दक्षिण, श्वेत-गैर श्वेत की खाई
अमीर देशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे न तो अपनी जीवनशैली बदल सकते हैं और न ही विकास का मॉडल। जैसे, अमेरिका में औसतन 100 ग्राम मांस को पैदा करने के लिए सात हजार लीटर पानी खर्च होता, हर साल अमीर देशों में ही करीब 55 अरब जानवर मीट के लिए काटे जाते हैं। इसी तरह द इकॉनमिस्ट मैगजीन के आंकड़े कहते हैं कि दुनिया की पांच कंपनियों (जिनमें नेस्ले, यूनीलीवर और कोका कोला शामिल हैं) की सालाना पानी की खपत 5.76 अरब लीटर है। यह पूरी दुनिया की साल भर की जरूरत को पूरा करने के लिए काफी है। हम जानते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सीधा संबंध पानी की खपत और संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जुड़ा है। पर क्या अमेरिका अपने खानपान में बदलाव और इन कंपनियों को बंद करने की सोच सकता है। औद्योगिक देश अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए या तो क्योटो जैसे समझौतों को मानने से इनकार कर देते हैं या फिर पूरी समस्या के बारे दुनिया भर को गुमराह करते हैं। जैसे, अमेरिका में बुश प्रशासन ने ग्लोबल वॉर्मिंग पर डू-नथिंग की पॉलिसी अपना रखी थी, जून 2005 में अमेरिकी विदेश विभाग के दस्तावेजों से पता चलता है कि अमेरिकी सरकार ने तेल कंपनी एक्सन को क्लाइमेट चेंज पॉलिसी तय करने में 'अहम' भूमिका निभाने पर थैंक्स कहा। क्योटो मुद्दा भी इस पॉलिसी का हिस्सा था। इसी तरह अमेरिकी वैज्ञानिकों को ग्लोबल वॉर्मिंग पर गंभीर बहस करने से रोका जाता रहा। इसी का नतीजा है कि ताजा सवेर् से पता चलता है कि महज 35 फीसदी अमेरिकी ही ग्लोबल वॉर्मिंग को गंभीर समस्या मानते हैं। अमेरिका की इस नीति का एक और पहलू है गरीब, विकासशील देशों में डर फैलाना कि ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज से सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं का होने वाला है, जबकि है इसका उलट। यूरोप और अमेरिका में काफी पहले से ही इसके घातक परिणाम आने शुरू हो गए हैं।
भारत, चीन और ब्राजील जैसे देश विकासशील देशों की नुमाइंदगी करते हैं। भारत का स्टैंड है कि अमीर देश हमें क्लीन और ग्रीन तकनीक को वाजिब दामों पर मुहैया कराएं और जीएच गैसों का उत्सर्जन कम करने के एवज में हमें मुआवजा भी दिया जाए। लेकिन हाल ही में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के रुख में कुछ बदलाव दिखा। वह जी-77 छोड़ जी-20 समूह का साथ पकड़ने, अमेरिका के साथ नजदीकी बढ़ाने और भारत को भी उत्सर्जन पाबंदी जैसे दायरे में लाने के पक्षधर दिखे। बाद में विपक्ष के हायतौबा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वही पुराना स्टैंड दुहराया साथ ही औद्योगिक देशों से ग्रीन-क्लीन तकनीक और वित्तीय सहायता पाने पर जोर दिया।
लेकिन भारत के रुख में यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके कई आयाम हैं। असल में क्योटो संधि लाने वाले पश्चिमी देश समझ चुके हैं कि बिना भारत को साथ लिए आगे बढ़ना मुश्किल है। इसीलिए भारत को जी-8 देशों की बैठक में शामिल किया जाने लगा है। यह टकराव छोड़ नरमी का रास्ता है। दूसरा पहलू भारत की इमेज प्रॉब्लम का है, आज भारत की छवि एक अड़ंगेबाज, जिद्दी देश की है जो बिना झुके विकसित देशों से बहुत कुछ चाहता है। चीन की भी छवि बहुत कुछ ऐसी ही थी लेकिन हाल ही में हुई यूएन बैठक में उसने इसमें सुधार कर वाहवाही लूटी, जबकि उसने वही कुछ कहा जो भारत के अजेंडे में है। फर्क नरम रवैये का था। अब, जबकि साफ है कि कोपेनहेगन सम्मेलन में कुछ खास नहीं निकलेगा, भारत नहीं चाहता कि इस नाकामी का ठीकरा उसके सिर फूटे। इससे भी अहम है कि भारत को अहसास है कि बातचीत और नरमी से ही वह विकसित देशों से अपने लिए ग्रीन तकनीक और वित्तीय सहायता पा सकता है। इसलिए बहुत मुमकिन है कि कोपेनहेगन बैठक तक भारत के रुख मे कुछ और बदलाव दिखे।
दरअसल हमारी इकनॉमिक ग्रोथ की थिअरी ही गलत है। इसके मुताबिक हम विकास को पूरी अर्थव्यवस्था में पैसे के लेन-देन से जोड़कर देखते हैं। अगर एक हराभरा पेड़ खड़ा है तो वह ग्रोथ के लिहाज से हमें कुछ नहीं देता, लेकिन अगर उसे काट दिया जाए तो उसे बेचकर जो पैसों का लेन-देन होगा वह ग्रोथ में शामिल हो जाएगा। इसी तरह हम विदेशों की देखादेखी औद्योगिक खेती अपना रहे हैं जिसके तहत जीएम फसलों को बढ़ावा मिल रहा है जो फायदा कम, नुकसान ज्यादा पहुंचा रही हैं। इनके उत्पादन में केमिकल फटिर्लाइजर्स का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। इनमें शामिल नाइट्रोजन नाइट्रस ऑक्साइड में बदलती है जो आम ग्रीन हाउस गैसों से 300 गुना ज्यादा खतरनाक है।
विश्व स्तर पर देखा जाए तो विश्व व्यापार को बढ़ावा तो दिया जा रहा है लेकिन उसमें ग्लोबल वॉर्मिंग के पक्ष को शामिल नहीं किया जा रहा है। यह व्यापार जिन साधनों से होगा मसलन हवाई यातायात वगैरह से, उनसे तो ग्लोबल वॉर्मिंग और भी बढ़नी है। पर हो यह रहा है कि हम असल मुद्दों से भटक कर समस्या को सुलझाने की जगह महज उसका नाटक कर रहे हैं।
- डॉ. देवेंद्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
अमीर देश हैं असली अपराधी
पूरी समस्या की जड़ में अमीर देश हैं जो अब अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। इसी तर्ज पर चलते हुए कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस से महज दो महीने पहले अमेरिका क्योटो संधि की जगह नई संधि की मांग करने लगा है।
इसी तरह कार्बन ट्रेडिंग और ग्रीन टेक्नॉलजी के नाम पर ये देश भारत और विकासशील देशों को ठग रहे हैं। दरअसल यह पूरा मैकेनिज्म ही करप्ट है। वे महज गैस और सस्ते-सुधरे चूल्हों के नाम पर अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं। इसी तरह जंगल काटकर उनकी जगह यूकेलिप्टस जैसे पेड़ लगाकर वाहवाही बटोरी जा रही है। लेकिन बाकी देश भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। हम लोगों ने भी कुछ खास नहीं किया है। इस सब को देखकर लगता है कि रास्ता अभी लंबा है और मुश्किलें ज्यादा।
- कुशल सिंह यादव, कोऑर्डिनेटर, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट
हवा में चारों तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग, क्लाइमेट चेंज, क्योटो प्रोटोकॉल, कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस जैसे शब्द तैर रहे हैं। विकसित-विकासशील देशों के मतभेद गूंज रहे हैं, क्लीन-ग्रीन तकनीक की बातें हो रही हैं। इसके मूल में एक ही चिंता है, अपनी धरती बीमार हो रही है, उसका टेंपरेचर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। चूंकि इसका असर धरती पर रहने वालों, खासकर इंसानों पर हो रहा है इसलिए चारों तरफ हायतौबा कुछ ज्यादा है। मगर शोर ज्यादा हो रहा है और अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को लेकर गंभीर चिंतन कम।
धरती की इस बीमारी की जड़ में है यूरोप में 1750 के बाद आई औद्योगिक क्रांति की आंधी। उस समय धरती के वातावरण के 10 लाखवें हिस्से में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 280 थी जो 1994 तक बढ़कर 358 तक हो गई थी। 1980 के दशक के आखिर में इसे लेकर चिंता बढ़ी। असल में कार्बन डाई ऑक्साइड ऐसी गैस है जो धरती के वातावरण में मौजूद रहकर सूरज से हम तक आने वाली गर्मी की कुछ मात्रा को सोखकर धरती को जीवनदायनी गर्मी देती है। वातावरण में मौजूद गैसों द्वारा गर्मी सोख कर धरती का ताप बढ़ाना ग्रीनहाउस इफेक्ट कहलाता है। कार्बन डाई ऑक्साइड प्रमुख ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) है बाकी दूसरी गैसें हैं मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन। लेकिन इनकी अधिकता से धरती का तापमान हद से ज्यादा बढ़ने लगा है यही ग्लोबल वॉर्मिंग है।
1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरो में एक पृथ्वी सम्मेलन हुआ और धरती को बचाने की कवायद तेजी से शुरू हुई। इसमें मौसम में आने वाले बदलाव पर एक यूएन फ्रेमवर्क बनाया गया। इसके तहत औद्योगिक देशों को दुनिया के मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार बताते हुए जीएचजी के उत्सर्जन पर रोक लगाने की बात कही गई। विकासशील देशों से कहा गया कि वे विकास को प्राथमिकता दें पर धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाते रहें। इसमें अमीर देशों से उनकी सहायता करने को कहा गया।
इसके बाद आई 1997 की क्योटो कॉन्फ्रेंस। जापान में आयोजित इस कॉन्फ्रेंस में एक प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों के लिए जीएचजी उत्सर्जन के लिए 1990 के आधार पर मानक तय किए गए। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर यह पाबंदी बाध्यकारी नहीं है। इस प्रोटोकॉल को लागू करने का पहला चरण 2008 से 2012 रखा गया था। रूस इसे मान्यता देने वाला पहला देश था और फरवरी 2009 तक 183 देश इस पर अपनी सहमति जता चुके हैं। ये वे देश हैं जिनसे कुल जीएचजी का 55 फीसदी निकलता है। अमेरिका ने इसे अभी तक मान्यता नहीं दी है।
ऑस्ट्रेलिया ने भी इसे हाल ही में मान्यता दी है। डेनमार्क के कोपेनहेगन में 7 दिसंबर से चालू होने वाली युनाइटेड नेशंस क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में अब तक के हालात की समीक्षा के साथ आगे की कार्रवाई पर विचार होगा। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि 9 अक्टूबर को बैंकॉक में संपन्न हुई क्लाइमेट चेंज टॉक में अमेरिका ने साफ तौर पर क्योटो प्रोटोकॉल को खारिज कर दिया और एक नए समझौते की मांग की। यूरोपियन यूनियन समेत तमाम औद्योगिक देशों ने अमेरिका की मांग की वकालत की है। उनका कहना है कि बिना अमेरिका को शामिल किए कोई भी समझौता सफल होना मुश्किल होगा। इसके साथ ही इन देशों का तर्क है कि प्रोटोकॉल के तहत विकासशील देशों के लिए भी लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए। इसी वजह से कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस के शुरू होने से पहले ही उसकी सफलता को लेकर शंकाएं उठने लगी हैं।
अमीर-गरीब, उत्तर-दक्षिण, श्वेत-गैर श्वेत की खाई
अमीर देशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे न तो अपनी जीवनशैली बदल सकते हैं और न ही विकास का मॉडल। जैसे, अमेरिका में औसतन 100 ग्राम मांस को पैदा करने के लिए सात हजार लीटर पानी खर्च होता, हर साल अमीर देशों में ही करीब 55 अरब जानवर मीट के लिए काटे जाते हैं। इसी तरह द इकॉनमिस्ट मैगजीन के आंकड़े कहते हैं कि दुनिया की पांच कंपनियों (जिनमें नेस्ले, यूनीलीवर और कोका कोला शामिल हैं) की सालाना पानी की खपत 5.76 अरब लीटर है। यह पूरी दुनिया की साल भर की जरूरत को पूरा करने के लिए काफी है। हम जानते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सीधा संबंध पानी की खपत और संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जुड़ा है। पर क्या अमेरिका अपने खानपान में बदलाव और इन कंपनियों को बंद करने की सोच सकता है। औद्योगिक देश अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए या तो क्योटो जैसे समझौतों को मानने से इनकार कर देते हैं या फिर पूरी समस्या के बारे दुनिया भर को गुमराह करते हैं। जैसे, अमेरिका में बुश प्रशासन ने ग्लोबल वॉर्मिंग पर डू-नथिंग की पॉलिसी अपना रखी थी, जून 2005 में अमेरिकी विदेश विभाग के दस्तावेजों से पता चलता है कि अमेरिकी सरकार ने तेल कंपनी एक्सन को क्लाइमेट चेंज पॉलिसी तय करने में 'अहम' भूमिका निभाने पर थैंक्स कहा। क्योटो मुद्दा भी इस पॉलिसी का हिस्सा था। इसी तरह अमेरिकी वैज्ञानिकों को ग्लोबल वॉर्मिंग पर गंभीर बहस करने से रोका जाता रहा। इसी का नतीजा है कि ताजा सवेर् से पता चलता है कि महज 35 फीसदी अमेरिकी ही ग्लोबल वॉर्मिंग को गंभीर समस्या मानते हैं। अमेरिका की इस नीति का एक और पहलू है गरीब, विकासशील देशों में डर फैलाना कि ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज से सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं का होने वाला है, जबकि है इसका उलट। यूरोप और अमेरिका में काफी पहले से ही इसके घातक परिणाम आने शुरू हो गए हैं।
भारत का रवैया और जिम्मेदारियां
भारत, चीन और ब्राजील जैसे देश विकासशील देशों की नुमाइंदगी करते हैं। भारत का स्टैंड है कि अमीर देश हमें क्लीन और ग्रीन तकनीक को वाजिब दामों पर मुहैया कराएं और जीएच गैसों का उत्सर्जन कम करने के एवज में हमें मुआवजा भी दिया जाए। लेकिन हाल ही में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के रुख में कुछ बदलाव दिखा। वह जी-77 छोड़ जी-20 समूह का साथ पकड़ने, अमेरिका के साथ नजदीकी बढ़ाने और भारत को भी उत्सर्जन पाबंदी जैसे दायरे में लाने के पक्षधर दिखे। बाद में विपक्ष के हायतौबा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वही पुराना स्टैंड दुहराया साथ ही औद्योगिक देशों से ग्रीन-क्लीन तकनीक और वित्तीय सहायता पाने पर जोर दिया।
लेकिन भारत के रुख में यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके कई आयाम हैं। असल में क्योटो संधि लाने वाले पश्चिमी देश समझ चुके हैं कि बिना भारत को साथ लिए आगे बढ़ना मुश्किल है। इसीलिए भारत को जी-8 देशों की बैठक में शामिल किया जाने लगा है। यह टकराव छोड़ नरमी का रास्ता है। दूसरा पहलू भारत की इमेज प्रॉब्लम का है, आज भारत की छवि एक अड़ंगेबाज, जिद्दी देश की है जो बिना झुके विकसित देशों से बहुत कुछ चाहता है। चीन की भी छवि बहुत कुछ ऐसी ही थी लेकिन हाल ही में हुई यूएन बैठक में उसने इसमें सुधार कर वाहवाही लूटी, जबकि उसने वही कुछ कहा जो भारत के अजेंडे में है। फर्क नरम रवैये का था। अब, जबकि साफ है कि कोपेनहेगन सम्मेलन में कुछ खास नहीं निकलेगा, भारत नहीं चाहता कि इस नाकामी का ठीकरा उसके सिर फूटे। इससे भी अहम है कि भारत को अहसास है कि बातचीत और नरमी से ही वह विकसित देशों से अपने लिए ग्रीन तकनीक और वित्तीय सहायता पा सकता है। इसलिए बहुत मुमकिन है कि कोपेनहेगन बैठक तक भारत के रुख मे कुछ और बदलाव दिखे।
समस्या कहां है?
असल मुद्दे से भटक चुके हैं हम
दरअसल हमारी इकनॉमिक ग्रोथ की थिअरी ही गलत है। इसके मुताबिक हम विकास को पूरी अर्थव्यवस्था में पैसे के लेन-देन से जोड़कर देखते हैं। अगर एक हराभरा पेड़ खड़ा है तो वह ग्रोथ के लिहाज से हमें कुछ नहीं देता, लेकिन अगर उसे काट दिया जाए तो उसे बेचकर जो पैसों का लेन-देन होगा वह ग्रोथ में शामिल हो जाएगा। इसी तरह हम विदेशों की देखादेखी औद्योगिक खेती अपना रहे हैं जिसके तहत जीएम फसलों को बढ़ावा मिल रहा है जो फायदा कम, नुकसान ज्यादा पहुंचा रही हैं। इनके उत्पादन में केमिकल फटिर्लाइजर्स का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। इनमें शामिल नाइट्रोजन नाइट्रस ऑक्साइड में बदलती है जो आम ग्रीन हाउस गैसों से 300 गुना ज्यादा खतरनाक है।
विश्व स्तर पर देखा जाए तो विश्व व्यापार को बढ़ावा तो दिया जा रहा है लेकिन उसमें ग्लोबल वॉर्मिंग के पक्ष को शामिल नहीं किया जा रहा है। यह व्यापार जिन साधनों से होगा मसलन हवाई यातायात वगैरह से, उनसे तो ग्लोबल वॉर्मिंग और भी बढ़नी है। पर हो यह रहा है कि हम असल मुद्दों से भटक कर समस्या को सुलझाने की जगह महज उसका नाटक कर रहे हैं।
- डॉ. देवेंद्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ
अमीर देश हैं असली अपराधी
पूरी समस्या की जड़ में अमीर देश हैं जो अब अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। इसी तर्ज पर चलते हुए कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस से महज दो महीने पहले अमेरिका क्योटो संधि की जगह नई संधि की मांग करने लगा है।
इसी तरह कार्बन ट्रेडिंग और ग्रीन टेक्नॉलजी के नाम पर ये देश भारत और विकासशील देशों को ठग रहे हैं। दरअसल यह पूरा मैकेनिज्म ही करप्ट है। वे महज गैस और सस्ते-सुधरे चूल्हों के नाम पर अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं। इसी तरह जंगल काटकर उनकी जगह यूकेलिप्टस जैसे पेड़ लगाकर वाहवाही बटोरी जा रही है। लेकिन बाकी देश भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। हम लोगों ने भी कुछ खास नहीं किया है। इस सब को देखकर लगता है कि रास्ता अभी लंबा है और मुश्किलें ज्यादा।
- कुशल सिंह यादव, कोऑर्डिनेटर, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट
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